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{ पोम्मटसार ओवकाण्ड गरया ६६६-६९७ चौदह हैं । सासादन विर्ष बादर एकेंद्री, बेंद्री, तेंद्री, चौइन्द्री, सैनी, असैनी अपर्याप्त अर सैनी, पर्याप्त ए सात पाइए ! द्वितीयोपशम सम्यक्त्व तै पड़ि. जो सासादन कों प्राप्त भया होइ, ताकी अपेक्षा तहां सैनी पर्याप्त पर देव अपर्याप्त ए दोय ही जीवसमास हैं । मिश्र विर्षे सैनी पर्याप्त एक ही जीवसमास है। बहुरि प्रथमोपशम. सम्यस्त्य अर वेदक सम्यक्त्व ए दोऊ असंयतादि अप्रमत्त पर्यंत हैं। तहां जीवसमास प्रथमोपशम सम्यक्त्व विः तो मरण नाहीं है, तातें एक संशी पर्याप्त ही है । अर बेदक सम्यक्त्व विर्षे सैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए दोय हैं; जाते धम्मानरक, भवनत्रिक बिना देव, भोगभूमिया मनुष्य वा तिर्यंच, इनिक अपर्याप्त विर्षे भी वेदक सम्यक्त्व संभव हैं। .. ' .. १. . .. . द्वितीयोपशम सम्यक्त्व को कहैं हैं..: बिदियवसमसम्मत्तं, अविरबसम्मादि संतमोहो ति।। - खइयं सम्मं च तहा, सिद्धो रित निहिं णिद्दिळं ॥६६६॥.
द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमविरससम्यगादिशांतमोह इति ।
क्षायिकं सम्यक्त्वं च तथा, सिख इति जिननिदिष्टम् ॥६९६॥ टीका- द्वितीयोपशम सम्यक्त्व असंयतादि उपशांत कषाय पर्यंत है; जाते इस द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कौं अप्रमत्त विष उपजाय ऊपरि उपशांतकषाय पर्यंत जाइ, नीचे पड़े, तहां असंयत पर्यंत द्वितीयोपशम सम्क्त्व सहित आवै, तात असंयत आदि विर्षे भी कह्या । तहां जीवसमास संजी पर्याप्त प्रर देव असंयत अपर्याप्त ए दोय पाइए हैं, जातै द्वितीयोपशम सम्यक्त्व विर्षे मरण है, सो मरि देव ही हो है । बहुरि क्षायिक सम्यक्त्व असंयतादि अयोगी पर्यंत ही है। तहाँ जीवसमास संज्ञी पर्याप्त है । अर जाके आयु बंध हुवा होइ, ताके धम्ना नरक, भोगभूमिया मनुष्य, तियंच, बैमानिक देव, इनिका अपर्याप्त भी है, ताते दोय जीवसमास हैं । बहुरि सिद्ध विर्षे भी क्षायिक सम्यक्त्व है; असा जिनदेवने कहा है।
सणी सण्णिप्पहुवी, खीणकसाओ हित होदि रिणयमेण । .
थावरकायप्पहुदी, असण्णि रित हवे असण्णी हु ॥६६७॥ FF.. . संज्ञी संज्ञिप्रभूतिः क्षीणकषाय इति भवति नियमेन ।
3. स्थावरकायप्रभूतिः, असंशोति भवेदसंज्ञी हि ॥६६॥ ..
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