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सम्बन्झामनिका भाषाटीका संभव है । बहुरि ताही ते प्रात्मा का अस्तित्व की सिद्धि हो है । जैसे कोई काष्ठादिक करि निपज्या प्रतिबिम्ब, सो चेष्टा करै तौ तहां जानिए यामैं तौ स्वयं शक्ति नाही, वेष्टा करानेवाला कोई पुरुष है । तैसे अचेतन जड शरीर विर्षे जो प्राणापानादिक चेष्टा हो है, तिस चेष्टा का प्रेरक कोई प्रात्मद्रव्य अवश्य हैं । अस प्रारमा का अस्तित्व की सिद्धि हो है । बहुरि सुख, दुःख, जीवित, मरण ए भी पुदगल द्रव्य ही के उपकार हैं तहां साता - असाता वेदनीय का उदय तो अंतरंग कारण र बाह्य इष्ट अनिष्ट वस्तु का संयोग इनिके निमित्त ते जो प्रीतिरूप वा आतापरूफ होला, सो सुख दुःख है । बहुरि आयुकर्म के उदय तें पर्याय की स्थिति को धारता जीव के प्रारणापान क्रिया विशेष का नाश न होना, सो जीवित कहिए। प्राणापान क्रियाविशेष का उच्छेद होना, सो मरण कहिए । सो ए सुख, दुःख, जीवित, मरण मूर्तीक द्रव्ये का निमित्त निकट होत संतै हो हो है ; ताते पुद्गलीक ही है । बहुरि पुद्गल है, सो केवल जीव ही कौं उपकारी नाहीं, पुद्गल को भी पुद्गल उपकारी है। जैसें कांसी इत्यादिक कों भस्मी इत्यादिक पर जलादि कौं कतक फलादिक अर लोहादिक को जलादिक उपकारी देखिए है । जैसे और भी जानिए हे । बहुरि प्रौदारिक, वैक्रियिक, आहारक नामा नामकर्म के उदय से तैजस आहार वर्गणां करि निपले तीन शरीर हैं, पर सासोस्वास है । बहुरि तेजस नामा नामकर्म के उदय से तैजस वर्गणा तें निपज्या तैजस शरीर है। बहुरि कारण नामा नामकर्म के उदय ते कारण वर्गणा करि निपज्या कार्माण शरीर है । बहुरि स्वर नामा नामकर्म के उदय ते भाषावर्गणा से निपज्या वचन है । बहुरि नोइंद्रियावरण का क्षयोपशम करि संयुक्त संनी जीव के अंगोपांग .नामा नामकर्म के उदय से मन वर्गणा ते निपज्या द्रव्य मन है, असे ए पुद्गल के उपकार हैं।
इस ही अर्थ की दोय सूत्रनि करि कहैं हैं ..
आहारवग्गणारी, तिण्णि सरीराणि होति उस्सासो। ...णिस्सासो विय तेजोवग्गणखंधादु तेजंग ॥६०७॥
पाहारवरणात् त्रीणि शरीराणि भवन्ति उच्छवासः ।
निश्वासोऽपि च तेजोवरणास्कन्धात्तुतेजोऽङ्गम् ॥६०७॥ टोका - तेईस जाति की वर्गणानि विर्षे आहारक वर्गरणा से औदारिक, वैक्रियिक, पाहारक तीन शरीर हो हैं । पर उस्वास निश्वास हो है । बहुरि तैजस वर्गणा का स्कंधनि करि तैजस शरीर हो है । . .