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[ गोम्मटसर का गाया २२७-२६८
कहिए जीव के ग्रहण करने के योग्य असी जे ग्राहार, तैजस, भाषा, मनः, कार्मारणवर्गरणा । इहां श्राहार वर्गरणा ते आहार, शरीर, इन्द्रो, सासोस्वास ए च्यारि पर्याप्ति हो हैं । तैजस वर्गगा तं तेजस शरीर हो है । भाषा वर्गणा तें वचन हो है | मनो वर्गात मन निपजे है । कार्मारण वर्मणा तें ज्ञानावरणादिक कर्म हो हैं । तातें इनि पंच वर्गात कौं ग्राह्य वर्गगा कही है। अर एक महास्कंध, इनि छहौ वर्गणानि का उत्कृष्ट तौ अपने-अपने जघन्य तें कि अधिक प्रमाण लीएं है । अर अवशेष सोलह वर्गणानि का उत्कृष्ट भेद अपने-अपने जघन्य को गुणकार करि गुखिए, तब हो है ।
सिद्धातिमभागो, पडिभागो गाण जेट्ठट्ठे । 'पल्लासंखेज्जदिमं, अंतिमखंधस्स जेट्ठट्ठ ॥५७॥
सिद्धानंतिम भागः, प्रतिभागो ब्राह्माणां ज्येष्ठार्थम् । पल्या संख्येयमंतिम स्कंधस्य ज्येष्ठार्यम् ॥५९७१
टीका ग्राह्य पंच वर्गरणा, तिनका उत्कृष्ट के निमित्त सिद्धराशि का अनंतवां भागमात्र प्रतिभाग है । अपने-अपने जघन्य की सिद्धराशि का अनंतवां भाग दीए, जो प्रमाण होइ, तितने जघन्य विषै मिलाएं, श्रपना-अपना उत्कृष्ट भेद हो है । बहुरि अंत का महास्कंध का उत्कृष्ट का निमित्त पल्य का असंख्यातवां भागमात्र प्रतिभाग है | महांस्कंध के जघन्य की पत्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, तितना जघन्य विषै मिलें, उत्कृष्ट महास्कंध हो है ।
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संखेज्जासंखेज्जे, गुणगारो सो दु होदि हु प्रणते । चत्तारि प्रगेज्जेसु वि, सिद्धाणमणंतिमो भागो ॥६८॥ संख्याता संख्यालायां गुणकारः स तु भवति हि अनंतायाम् । चतसृषु ग्राह्यास्वषि, सिद्धानामनंतिमो भागः ५
टोका संख्यातावणा पर असंख्याताणुवर्गणा विषै अपने-अपने उत्कृष्ट को अपना-अपना जघन्य का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, सोई गुणकार जानना । इस गुणकार करि जघन्य की गुरु, उत्कृष्ट भेद हो है । बहुरि अनंताणुवर्गरणा विषै पर जीव करि ग्रहण योग्य नाहीं । असी च्यारि अग्राह्य वर्गरणा विषै गुणकार सिद्धराशि का अनंतवां भागमात्र है । इसकरि जघन्य कों गुरौं, उत्कृष्ट भेद हो है ।
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