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सम्यग्ज्ञानचरित्रका माटोका
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प्रारणां द्वयोर्द्वयोः षण्णां द्वयोश्च त्रयोदशानां च । एतस्माच्च चतुर्दशानां लेश्या भवनादिदेवानाम् ॥५३४।। तेजस्तेजस्तेजः पद्मा पद्मा च पद्यशुक्ले च । शुक्ला च परमशुक्ला, भवनत्रिकाः प्रपूर्णके शुभाः ॥ ५३५ ॥
टीका - देवनि के लेश्या कहिए हैं - तहां पर्याप्त भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी इनि भवत्रिक के तेजो लेश्या का जघन्य अंश है । सौधर्म - ईशान, दोय स्वर्गवालों के तेजोलेश्या का मध्यम अंश है । सनत्कुमार माहेंद्र स्वर्गवालों के तेजो लेश्या का उत्कृष्ट अंश पर पद्म लेश्या का जघन्य अंश है । ब्रह्म आदि छह स्वर्गवालों के पद्म लेश्या का मध्यम अंश है | पातार सहस्रार दोय स्वर्गवालों के पद्म लेश्या का उत्कृष्ट अंश घर शुक्ल लेश्या का जधन्य अंश है । आनत श्रादि च्यारि स्वर्ग र नव ग्रैवेयक इनि तेरह वालों के शुक्ल लेश्या का मध्यम अंश है । ताके ऊपर नव अनुदिश पर पंच अनुत्तर इति चौदह विमान वालों के शुक्ल लेश्या का उत्कृष्ट भ्रंश है । बहुरि भवनत्रिक देवनि के अपर्याप्त अवस्था विषे कृष्णादि तीन
शुभ लेश्या ही पाइए हैं। याही तैं यह जानिए है, जो वैमानिक देवनि के पर्याप्त वा अपर्याप्त अवस्था विषे लेश्या समान ही है । जैसे जिस जीव के जो लेश्या पाइए, सो जीव तिस लेश्या का स्वामी जानना । इति स्वाम्यधिकारः ।
af area अधिकार कहै हैं
वष्णोदय- संपादिद-सरवण्णो दु वव्वदी लेस्सा | मोहृदय खओवसमोवसम खयज- जीवफंदणं भावो ॥५३६॥
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वर्षोदयसंपादित - शरीरवर्णस्तु द्रव्यतो लेश्या ।
मोहोदय क्षयोपशमोपशमक्षयजजीवस्पन्दो भावः ॥ ५३६ ॥
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टीका वर्ण नामा नामकर्म के उदय ते उत्पन्न भया जो शरीर का वर्ण, सो
द्रव्य लेश्या है । तातें द्रव्य लेश्या का साधन नामा नामकर्म का उदय है । बहुरि असंयत पर्यंत च्यारि गुणस्थाननि विषै मोहनीय कर्म का उदय तें देश विरतादिक तीन गुणस्थाननि विषै मोहनीय कर्म का क्षयोपशम तें उपशम श्रेणी विषै मोहनीय कर्म का उपशम तैं क्षपक श्रेणी विषै मोहनीय कर्म का क्षय तें उत्पन्न भया जो जीव का स्पंद, सो भाव लेश्या है । स्पंद कहिए जीव के परिणामनि का चंचल होना वा