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गोम्मटसार जीवकाम गाथा ५६० ___यंत्र विर्षे अगृहीत की सहनानी तो विदी ॥॥ जाननी अरु मिश्र की सहनानी हंसपद +|| जाननी । अर गृहीत की सहनानी एक को अंक ॥१॥ जाननी ।। पर दोय बार लिखने ते अनंत बार जानि लेना।
... द्रश्य परिवर्तन का यंत्र
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तहां विवक्षित नोकम पुद्गल परिवर्तन का पहिले समय से लगाइ, प्रथम बार समयबद्ध विषं अगृहीत का ग्रहण करै, दूसरी बार अगृहीत ही का ग्रहण कर, तीसरी बार अंग्रहीत ही की ग्रहण कर असे निरंतर अनंत बार अग्रहीत का ग्रहण होइ निवरै तब एक बार मिश्र का ग्रहण कर । याहीत यंत्र विर्ष पहिले कोठा विर्षे दोय बार विधी एक बार हसप मिस्या
बहुरि तहां पीछे तसे ही निरंतर अनंत बार अगृहीत का ग्रहण करि एक बार मिश्र का ग्रहण कर, असे ही अनुक्रमत अनंत अनंत · बार अगृहीत का ग्रहण करि करि एक - एक बार मिश्र का ग्रहण करैः; प्रैसें ही मिश्र का भी ग्रहण अनंत बार हो है । याहीत अनंत बार को सहनालो के निमित्त यंत्र विर्षे जैसा पहिला कोठा था, संसाही दूसरा कोठा लिख्या । .......
बहुरि तहां पीछे तैसे ही निरंतर अनंत बार अंगृहीत का ग्रहण करि एक बार गृहीत का ग्रहण करें, याहीते तीसरा कोठा विर्षे दोय बिदी पर एक का अंक लिख्या । बहुरि अगृहीत ग्रहण आदि अनुक्रम से जसे यह एक बार गृहीत ग्रहण भया, तैसे ही अनुक्रम ते एक - एक बार गृहीत 'ब्रहण करि 'अनंत बार गृहीत ग्रहण हो है । याहीत जसे तीन कोठे पहिले लिखे थे, तैसे ही अनंत की सहनानी के निमित्त दूसरा तीन कोठे लिखे, सो असे होते प्रथम परिवर्तन भया । तातै इतना प्रथमपंक्ति विर्षे लिखा। ..
अब दूसरी पंक्ति का अर्थ दिखाइए है - पूर्वोक्त अनुक्रम भए पीछे निरंतर अनंत कार मिश्र ग्रहण करे, तब एक बार अगृहीत ग्रहण करै । यात प्रथम कोठा विर्षे
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