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गोम्मटसार जीवाण्ड पाथा ३५३' धन परमागम विर्षे प्रसिद्ध हैं । सिद्धो वर्णः समानायः' इति वचनात् । व्यज्यते काहिए अर्थ, जिनिकरि प्रकट करिए ते व्यंजन कहिए । स्वरंति कहिए अर्थ को कहैं ते स्वर कहिए । योगं कहिए अक्षर के संयोग को वहंति कहिए प्राप्त होंइ ते, योगवाह कहिए । मूल कहिए (और) अक्षर के संयोग रहित संयोगी अक्षर उपजने कौं कारण ये चौसानि मूलवर्ण हैं । इस अर्थ करि द्वितीयादि - अक्षर के संयोग रहित चौसठि अक्षर हैं । इनिविर्षे द्रोय प्रावि अक्षर मिलें संयोगी हो है । जैसे नकार व्यंजन, प्रकार स्वर मिलिकरि क जैसा अक्षर हो है । आकार के मिलने ते का असा अक्षर हो है । इत्यादि संयोगी अक्षर उपजने को कारण चौसठि मूल अक्षर जानने। .
इहा प्रश्न - जो व्याकरण विर्षे ए, ऐ, ओ, प्रो इनिकौं लस्व न कहै है । इहां ए भी ह्रस्व कैसे कहे ?
ताको समाधान - जो संस्कृत भाषा विर्षे ह्रस्वरूप ए, ऐ, ओ, औ नाहीं हो है तातें न कहे। प्राकृत भाषा विर्षे या देशांतर की भाषा विषं ए, ऐ, प्रो, औ, ये अक्षर भी ह्रस्व हो हैं, तातै इहां कहे हैं।
बहुरि एक दीर्घ ल कार संस्कृत भाषा विर्ष लाही है; तथापि अनुकरण विर्षे देशांतर की भाषा विष हो है; तातै इहां कह्या है।
चउसट्ठिपदं विरलिय, दुगं च दाऊण संगुरणं किच्चा । रूऊरणं च कुए पुण, सुदणाणस्सक्खरा होति ॥३५३॥
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चतुःषष्टिपदं विरलयिस्वा, विकं च वस्वा संगुणं कृत्वा ।
रूपोने च कृते पुनः, श्रुतज्ञानस्याक्षराणि भवंति ।।३५३॥ टीका - मूल अक्षर प्रमाण चौसठि स्थान, तिनिका विरलन करिये, बरोबरि पंक्तिरूप एक -एक जुदा चौसठि जायगा मांडिए । तहां एक २ के स्थान दोय दोय का अंक २ मांडिये, पीछे उनकौं परस्पर गुणन करिये, दोय दून्यों ज्यारि (४) च्यारि दून्यो पाठ {८) पाठ दून्यो सोलह (१६) असें चौसठि पर्यंत गुणन कीये, जो एकट्ठी प्रमाण प्रात्व, तासे एक घटाइये, इतने अक्षर सर्व द्रव्य श्रुत के जानने ते ये प्रक्षर अपुनरुक्त जानने जाते जो वाक्य का अर्थ की प्रतीति के निमित्त उन ही कहै अक्षरनि कौं बारंबार कहे, तो उनका किछु संस्था का नियम है नाहीं ।