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[गोम्मरसार जीवकास गाथा ४५२-४५३
प्रवरं द्रव्यमौरासिकशरीरनिओर्णसमयप्रबद्धं तु ।
चक्षुरिंद्रियनि|र्णमुत्कृष्ट मजुमतेर्भवेत् ।।४५१॥ टोका - ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान जघन्यपने करि औदारिक शरीर का निर्जरारूप समय प्रबद्ध कौं जाने है । औदारिक शरीर विर्षे समय समय निर्जरा हो है, सो एक समय विष औदारिक शरीर के जितने परमाणू निर्जर, तितने परमाणूनि का स्कंध की जघन्य ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान जाने हैं। बहुरि उत्कृष्टपने नेत्र इंद्रिय की निर्जरा मात्र द्रव्य कौं जाने हैं । सो कितना है ? औदारिक शरीर को अवगाहना संख्यात धनांयुल प्रमाण है । तिस विषं विस्रसोपचय सहित औदारिक शरीर का समय प्रबद्ध प्रमाण परमाणू निर्जरा रूप भये, तो नेत्र इंद्रिय की अभ्यंतर निर्वृति अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण है। तिस विर्षे कितने परमाणू निर्जरारूप भए, असा त्रैराशिक करि जितना परमाणू पाया, तितने परमाणूनि का स्कंध कौं उत्कृष्ट ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान जाने हैं।
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मणध्ववम्गणाणमणंतिमभागेण उजुगउक्कस्सं । खंडिदमेतं होदि हु, विउलमदिस्साबरं दव्वं ॥४५२॥
मनोद्रव्यवर्गरगामनंतिमभागेन ऋजुगोत्कृष्टम् ।
खंडितमात्रं भवति हि, विपुलमतेरवरं द्रव्यम् ॥४५२।। टीका - बहुरि तेईस जाति की पुद्गल वर्गणानि विर्षं मनोवर्गणा का जघन्य ते लगाई, उत्कृष्ट पर्यंत जितने भेद हैं, तिनिकौं अनंत का भाग दीजिए, तहां जो एक भाग विर्षे प्रमाण होइ, सो मनःपर्यय ज्ञान का कथन विर्षे ध्रुवहार का परिमारण जानना । सो ऋजुमति का उत्कृष्ट विषयभूत द्रव्य विर्षे जो परिमाण कहा था, ताकी इस ध्रुवहार का भाग दीएं, जो परिमाण आवै, तितने परमाणूनि का स्कंध की जघन्य विपुलमति मन:पर्ययज्ञान जाने हैं।
अटण्हं कम्माणं, समयपबद्ध विविस्ससोवचयं ।। ध्रुवहारेणिगिवारं, भजिदे बिदियं हवे दव्वं ॥४५३॥
अष्टानां कर्मणां, समयप्रबद्धं विविनसोपचयम् । ध्रुवहारेणकदारं, भजिते द्वितीयं भवेत् द्रव्यम् ॥४५३॥