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सम्यक नचन्द्रिका भाषादीका ]
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दीका - सूक्ष्मकृष्टि कौं प्राप्त भया लोभ कषाय का अनुभाग, ताके उदय कौं भोगवता उपशमी वा क्षायिकी जीक, सो सूक्ष्म है, सापराय कहिए कषाय जाके, असा सूक्ष्मसापराय संयमी जानना । सो यहु यथाख्यात संयमी जे महामुनि, तिनितें किछु एक घाटि जानना, स्तोकसा हो अंतर है ।
उवसंते खोरणे वा, असुहे कम्मम्मि मोहणीयम्मि । छमट्टो वा जिरणो वा, जहखादो संजदो सो दु ॥४७५॥
उपशांत क्षीणे या प्रशुभे कर्मणि मोहनीये ।
छमस्थो वा जिनो का, यथाख्यातः संयतः स तु १४७५३॥ टीका - अशुभरूप मोहनीय नामा कर्म, सो उपशम होते वा क्षयरूप होते उपशांत कषाय गुणस्थानवर्ती वा क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती छमस्थ होइ अथवा सयोगी अयोगी जिन होइ; सोई यथाख्यात संयमी जानना । मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम ते वा नाशते जो यथावस्थित प्रात्मस्वभाव की अवस्थाः; सोई है लक्षण जाका, असा यथाख्याल चारित्र कहिए है।
पंच-तिहि-घउ-विहेहिं य, अणु-गुण-सिक्खा-वएहि संजुत्ता । उच्चंति देस-विरया सम्माइट्ठी झलिय-कम्मा ॥४७६॥
पंचत्रिचतुविधश्च, अणुगुणशिक्षाप्रतैः संयुक्ताः।
उच्यते देशविरसाः सम्यष्टयः झरितकरिणः ।।४७६॥ टीका - पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, च्यारि शिक्षावत असे बारह व्रतनि करि संयुक्त जे सम्यादृष्टी, कर्म निर्जरा के धारक, ते देश विरती संयमासंयम के धारक परमागम विर्षे कहिए है।
वंसण-वय-सामाइय, पोसह-सच्चित्त-रायपत्ते य । बह्मारंभ-परिग्गह, अणुमणसुद्दि-देसविरदेव ॥४७७॥
दर्शनप्रतसामायिकाः प्रोषधसधिसरात्रिभताश्च । । ब्रह्मारंभपरिग्रहानुमतोष्टिदेशधिरता एते ॥४७७॥
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१. पर्खष्टागम बबला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा सं. १६१।। २.पखंडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा सं. १९२ । ३. पटोडागम--धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा सं. १६३६
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