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(गोम्मटसार जीयकाष्ट मामा ३७१
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श्रवधीयत इत्यवधिः सीमाज्ञानमिति वरिणतं समये । भवगुरणप्रत्ययविधिक, यदवधिज्ञानमिति ब्रुवंति ॥३७०।।
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टीका -- अवधीयते कहिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करि परिमाण जाका कीजिए, सो अवधिज्ञान जानना । जैसे मति, श्रुत, केवलज्ञान का विषय द्रव्य, क्षेत्रादि करि अपरिमित है; तेसै अवधिज्ञान का विषय अपरिमित नाहीं। श्रुतज्ञान करि भी शास्त्र के बल तें अलोक वा अनन्तकाल आदि जानें । अवधिज्ञान करि जेता द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव प्रमाण आरौं कहेंगे; तितना ही प्रत्यक्ष जानें । तातें सीमा जो द्रव्य क्षेत्रादि की मर्यादा, ताकी लीए हैं विषय जाका, असा जो ज्ञान, सो अवधिज्ञान है; असे सर्वज्ञदेव सिद्धांत विर्षे कहे हैं।
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सो अवधिज्ञान दोय प्रकार कह्या है । एक भवप्रत्यय, एक गुरगप्रत्यय । तहां भव जो बारकादिक पर्याय, ताके निमित्त तै होइ; सो भवप्रत्यय कहिए, जो नारकादि पर्याय धारै साके अवधिज्ञान होइ ही होइ; तातै इस अवधिज्ञान को भवप्रत्यय कहिए । बहुरि गुणप्रत्यय कहिए सम्यग्दर्शनादि रूप, सो है निमित्त जाका; सो गुणप्रत्यय कहिए । मनुष्य, तिर्यच सर्व ही के नवधिज्ञान नाहीं; जाकै सम्यग्दर्शनादिक को विशुद्धता होइ, ताकै अवविज्ञान होइ; ताते इस अवधिज्ञान कौं गुरणप्रत्यय कहिए ।
भवपच्चाइको सुरणिरयारणं तित्थे वि सम्वगुत्थो। गुणपच्चइगो परतिरियाणं संखादिचिहणभवो ॥३७१॥
भवप्रत्ययकं सुरनारकाणां तीर्थेऽपि सर्वांगोत्थम् ।
गुणप्रत्ययक नरतिररचा शंखादिचिह्न भयम् ॥३७१।। टीका ---- तहां भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवनि के, नारकीनि के अर चरम शरीरी तीर्थकर देवनि के पाइए है । सो यहु भवप्रत्यय अवधिज्ञान 'सर्वांगोत्थं कहिए सर्व प्रात्मा के प्रदेशनि विष तिष्ठता अवधिज्ञानावरण अर वीर्यातराय कर्म, ताके क्षयोपशम ते उत्पन्न हो है।
बहुरि गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है, सो पर्याप्त मनुष्य पर संनी पंचेंद्री पर्याप्त तिर्यच, इनिके संभव है । सो यह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान 'शंखादिचिन्हभवम्' कहिए
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