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सम्यग्जानन्तिका भावाटीका 1
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विशेष, ताके कोई प्रकार वाडा विर्षे रोम भरने करि, पल्य की समानता का
आश्रय करि, पल्योपम कहिए है । चकार करि सागर आदि उपमासत्य के विशेष जानने।
असे अनुक्रम ते जनपदादिक सत्य के भोजनादिक उदाहरण क्रम से कहे।
प्रागै अनुभव वचन के आमंत्रणी आदि भेदनि के निरूपण के निमित्त दोय गाथा कहैं हैं -
आमंतणि आणवणी, याचणिया पुच्छणी य पण्णवरणी। . . पच्चक्खाणी । संसयवयणी इच्छाणुलोमा य ॥२२५॥
प्रामंत्रणी आज्ञापनी, याचनो प्रापृच्छनो च प्रज्ञापनी ।
प्रत्याख्यानी · संशयवचनी इच्छानुलोम्नी व ॥२२॥ टीका - 'हे देवदत्त ! तु प्राव' इत्यादि लावनेरूप जो भाषा, सो आमंत्रणी कहिए । बहुरि 'तु इस कार्य कौं करि' इत्यादि कार्य करवाने की प्राज्ञारूप जो भाषा सो आज्ञापनी कहिए । बहुरि 'तू मोको यह वस्तु देहु' इत्यादि मांगनेरूप जो भाषा सो याचनी कहिए । बहुरि 'यह कहां है ?' इत्यादि प्रश्नरूप जो भाषा सो आपृच्छनी कहिए । बहुरि 'हे स्वामी मेरी यह वीनती है' इत्यादि किंकर की स्वामी सौं बीनतीरूप जो भाषा, सो प्रज्ञापनी कहिए । बहुरि 'मैं इस वस्तु का त्याग कीया' इत्यादि त्यागरूप जो भाषा, सो प्रत्याख्यानी कहिए । बहुरि जैसे 'यहु बुगलों की पंकति है कि ध्वजा है' इत्यादि संदेहरूप जो भाषा, सो संपायवचनी कहिए । बहरि जैसे 'यह है लेस मोकौं भी होना' इत्यादि इच्छानुसारि जो भाषा, सो इच्छानुवचनी कहिए।
रणवमी अणक्खरगदा, असच्चमोसा हवंति भासायो। सोदाराणं जह्मा, वत्तावत्रं ससंजरगया ॥२२६॥
नदमी अक्षरगता, असत्यमृषा भवंति भाषाः ।
श्रोत णां यस्मात् व्यक्ताव्यतांशसंशापिकाः ॥२२६॥ टीका - पाठ भाषा तो प्रागै कहों पर नवमी अक्षररूप बेइंद्रियादिक असैनी जीवंनि के जो माषा हो है, अपने-अपने समस्यारूप संकेत की प्रकट करणहारी; सो