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गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया २४२.२४३
प्रागें योगनि की प्रवृत्ति का विधान दिखावै है-- वेगुश्विय-आहारयकिरिया ण समं पमत्तविरदसि । जोगोवि एक्ककाले, एक्केव य होदि णियमेण ॥२४२।।
बैविकाहारकक्रिया न समं प्रससविरते ।
योगोऽपि एककाले, एव च भवति नियमेन ॥२४२॥ टीका -- प्रमत्त विरत षष्ठम गुणस्थानवर्ती मुनि के समकाल विर्षे युगपत् वैक्रियिक काययोग की क्रिया पर आहारक योग की क्रिया नाहीं ! असा नाही कि एक ही काल विर्षे आहारक शरीर कौं धारि, गमनागमनादि कार्य करें करें पर विक्रिया ऋद्धि कौं धारि, विक्रिया संबंधी कार्य कौं भी करै, दोऊ में स्यौं एक ही होइ । या यहु जान्या कि गणरादिकनि के और ऋद्धि युगपत् प्रवर्ते तो विरुद्ध नाहीं । बहुरि से ही अपने योग्य अंतर्मुहर्त मात्र एक काल विर्षे एक जीव के युगपत् एक ही योग होइ, दोय वा तीन योग युगपत् न होइ, यहु नियम है। जो एक योग का काल विर्षे अन्य योग संबंधी गमनादि क्रिया की प्रवृत्ति देखिए है, सो पूर्वं जो योग भया था, ताके संस्कार से हो है । जैसे कुंभार पहिले चाक दंड करि फेऱ्या था, पीछे कुंभार उस चाक कौं छोडि अन्य कार्य कौं लाग्या; वह चाक संस्कार के बल ते केतक काल माप ही फिर्या करै; संस्कार मिटि जाय, तब फिरै नाहीं । तैसे प्रात्मा पहिले जिस योगरूप परिणया था, सो उसको छोडि अन्य योगरूप परिणया, वह योग संस्कार के बल तैं आप ही प्रवत है। संस्कार मिटें जैसे छोड्या हवा बारा मिरै, नैसे प्रवर्तना मिटें है । ताते संस्कार ते एक काल विर्षे अनेक योगनि की प्रवृत्ति जामना । बहुरि प्रमत्तविरति के संस्कार की अपेक्षा भी एक काल वैक्रियिक का आहारक योग की प्रवृत्ति न हो है । असे याचार्य करि वर्णन किया है। सो जानना।
प्रागै योग रहित प्रात्मा के स्वरूप कौं कहै हैंजेसि | संति जोगा सुहासुहा पुण्णपावसंजणया । ते होंति प्रजोगिजिणा, अणोवमाणंतबलकलिया ॥२४३॥
येषां न संप्ति योगाः, शुभाशुभाः पुध्यपापसंजनकाः ।। ते भवंति अयोमिजिनाः, अनुपमानंतबलकलिताः ॥२४॥
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१. यट्खखरगम -धवला पुस्तक १, पृष्ठ २१२, माथा १५५१