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सम्यमानचन्द्रिका भाषाटोका ]
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टीका - मित्र कहिए सम्यग्मिथ्यात्व नामा मोहनीय कर्म की प्रकृति, ताके उदय होते, तीनों प्रज्ञान करि मिल्या तीनों सम्यग्ज्ञान इहां हो हैं; जाते जुदा कीया जाता नाहीं, तातै सम्यग्मिथ्यामति, सम्यग्मिथ्याश्रुत, सम्यग्मिथ्या अवधि अंसे इहां नाम हो हैं। जैसे इहां एक काल विर्षे सम्यग्रूप वा मिथ्यारूप मिल्या हुवा श्रद्धान पाइए है । तैसे ही ज्ञानरूप वा अज्ञानरूप मिल्या हुवा ज्ञान पाइए है । इहां न तो केबल सम्याज्ञान ही है, न केवल मिथ्याज्ञान है, मिथ्याज्ञान करि मिल्या सम्यग्ज्ञानरूप मिश्र जानने ।
बहुरि मनःपर्यय ज्ञान विशेष संयम का धारक छठा गुणस्थान ते बारहवां गुणस्थान पर्यंत सात गुणस्थानवर्ती लप विशेष करि वृद्धिरूप विशुद्धताके धारी महामुनि, तिन ही के पाइए है; जातै अन्य देशसंयतादि विर्षे तैसा तप का विशेष न संभव है।
द्वारे गिनादान का विशेष लक्षण तीन गाथानि करि कहैं हैं - विस-जंत-कूड-पंजर-बंधादिसु विणुवएस-करणेण । जा खलु पवद्दए मइ, मइ-अण्णाणं ति णं बेति ॥३०३॥
विषयंत्रकूटपंजरबंधादिषु विनोपदेशकरणेन ।
या खलु प्रवर्तते मतिः, मत्यज्ञानमितीदं अवंति ॥३०३॥ टीका - परस्पर वस्तु का संयोग करि मारने की शक्ति जिस विर्षे होइ जैसा तैल, कर्पूरादिक वस्तु, सो विष कहिए ।
बहुरि सिंह, व्याघ्रादि क्रूर जीवनि के धारन के अधि जाकै अभ्यंतर छैला आदि रखिए । अर तिस विर्षे तिस कर जीव कौं पाव धरते हो किवाड़ जुडि जाय, असा सूत्र की कल करि संयुक्त होइ, काष्ठादिक करि रच्या हुवा हो है, सो यन्त्र कहिए।
बहुरि माछला, काछिवा, मूसा, कोल इत्यादिक जीवनि के पकड़ने के निमित्त काष्ठादिकमय बने, सो कूट कहिए ।
बहुरि तीतर, लवा, हिरण इत्यादि जोवनि के पकड़ने के निमित्त फंद कौं लीएं जो डोरि का जाल बने, सो पीजर कहिए ।
१. षट्लंडागम - धवला पुस्तक १, गाथा १७६, पृष्ठ ३६० ।