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गम्मन्सार शेवकाण्ड साया ३०७ अभिमुखनियमितबोधनमाभिनिमोधिकनिद्रियेद्रियज ।
अवग्रहहावायधारणका भवंति प्रत्येकं ॥३०॥ टीका - स्थूल, वर्तमान जिस क्षेत्र विर्षे इंद्रिय-मन की प्रवृत्ति होइ, तहां तिष्ठता असा जो इंद्रिय - मन के ग्रहण योग्य पदार्थ, सो अभिमुख कहिए । बहुरि इस इंद्रिय का यह ही विषय है, असा नियमरूप जो पदार्थ, सो नियमित कहिए, असे पदार्थ का जो जानना, सो अभिनिबोध कहिए । अभि कहिए अभिमुख अर 'नि' कहिए नियमित जो अर्थ, ताका निबोध कहिए जानना, असा अभिनिबोध, सोई प्राभिनिबोधिक है । इहां स्वार्थ विर्षे ठण प्रत्यय आया है। सो यह आभिनिबोधिक मतिज्ञान का नाम जानना । इंद्रियनि के स्थूल रूप स्पर्शादिक अपने विषय के ज्ञान उपजावने की शक्ति है । बहुरि सूक्ष्म, अंतरित, दूर पदार्थ के ज्ञान उपजावने की शक्ति नाहीं है । तहां सूक्ष्म पदार्थ तो परमाणु प्रादिक, अंतरित पदार्थ प्रतीत अनागत काल संबंधी, दूर पदार्थ मेरु गिरि, स्वर्ग, नरक, पटल आदि दूर क्षेत्रवर्ती जानने। असे मतिज्ञान का स्वरूप कहा है।
सो भतिज्ञान कैसा है ?
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अनिद्रिय जो मन, पर इंद्रिय स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्ष, श्रोत्र, इनि करि उपज है । मतिज्ञान उपजने के कारण इंद्रिय अरु मन हैं । कारण के भेद से कार्य विर्षे भी भेद कहिए, तात मतिज्ञान छह प्रकार है। तहां एक-एक के च्यारि-च्यारि भेद हैं - अन्नग्रह, ईहा, 'प्रवाय, धारणा । सो मन ते वा स्पर्शन ते वा रसना ते बा घ्राण ते वा चक्षु ते वा श्रोत्र ते ए अक्ग्रहादि च्यारि-च्यारि उत्पन्न होइ, ताते चौबीस भेद भएं।
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अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा का लक्षण शास्त्रकर्ता प्रागें स्वयमेव कहेंगे। वेंजणप्रत्थअवग्गहभेदा हु हवंति पत्तपत्तत्थे। कमसो ते वावरिया, पढमं ण हि चक्खुमणसारणं ॥३०७॥ ।
व्यंजनार्थावग्रहमेदी, हि भवतः प्राप्ताप्राप्तार्थे । क्रमशस्तौ ध्यायुतौ, प्रथमो महि चक्षुर्मनसोः ॥३०७॥