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सम्पज्ञानचन्द्रिका भावाटीका
का निराकरण वा स्याद्वाद मत के प्रमाण का स्थापन विशेषपने जैन के तर्कशास्त्र है, तिनि विषं विचारना ।
इहा अहेतुवादरूप प्रागम विर्षे हेतुवाद का अधिकार नाहीं । ताते सविशेष ने कया। हेतु करि जहां अर्थ कौं दृढ कीजिए ताका नाम हेतुवाद है, सो न्यायशास्त्रनि. विर्षे हेतुवाद है। इहां तो जिनागम अनुसारि वस्तु का स्वरूप कहने का अधिकार जानना।
आगें ज्ञान के भेद कहैं हैं - पंछध होशि पाणा, शिसुद्ध-मोही-मरणं च केवलयं । खयउपसमिया चउरो, केवलणार हवे खइयं ॥३०॥
पंचव भवंति सानानि, मलिश्रुतावधिमनश्च केवलम् ।
क्षायोपशमिकानि चत्वारि, केवलज्ञानं भवेत् क्षायिकम् ॥३०॥ टीका-मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय, केवल ए सम्यग्ज्ञान पंच ही हैं; हीन अधिक नाहीं । यद्यपि संग्रहनयरूप द्रव्याथिक नय करि सामान्यपने ज्ञान एक ही है। तथापि पर्यायाथिक नय करि विशेष कीएं पंच भेद ही हैं। तिनि विर्षे मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्यय ए च्यारि ज्ञान क्षायोपशमिक हैं ।
जात मतिज्ञानावरणादिक कर्म का वीर्यान्तराय कर्म, ताके अनुभाग के जें सर्वेधातिया स्पर्धक हैं; तिनिका उदय नाहीं, सोई क्षय जानना । बहुरि जे उदय अवस्था कौं न प्राप्त भए, ते सत्तारूप तिष्ठ हैं, सोई उपशम जानना । उपशम वो क्षय करि उपजे, ताकौं क्षयोपशेम कहिए अथवा क्षयोपशम है प्रयोजन जिनिका, ते क्षायोपशमिक कहिए। यद्यपि क्षायोपशामिक विर्षे तिस प्रावरण के देशघातिया स्पर्धकनि का उदय पाइए है । तथापि वह तिस ज्ञान का घात करने की समर्थ नाहीं है; तातें ताकी मुख्यता न करी ।
याका उदाहरण कहिए है - अवधिज्ञानावरण कर्म सामान्यपर्ने देशघाती है। तथापि अनुभाग का विशेष कीएं, याके केई स्पर्धक सर्वघाती हैं ; केई स्पर्धक देशघाती हैं । तहां जिनिकै अवधिज्ञानं किछ भी नाहीं, लिनिक सर्वघाती स्पर्धकनि का उदय जानना । बहुरि जिनि के अंवधिज्ञान पाइए हैं परं प्रावरण उदय पाइए है; तहां