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सम्यानचन्द्रिका मायटोका
बहरि प्रायु का अन्यथा लक्षण है, जालें अायु का अपकर्षण कालनि विर्षे वा असंक्षेप अंत काल विर्षे ही बंध हो है । बहुरि आबावा काल पूर्व भव विष व्यतीत हो है । तातै आयु की जितनी स्थिति, तितनी ही निषेकनि की रचना जामनी । आबाधाकाल घटावना नाहीं । बहुरि आयुकर्म का उत्कृष्ट संचय कोडि पूर्व वर्ष प्रमाण प्रायु का धारी जलचर जीव के हो है। तहां कर्मभूमियां मनुष्य कोटि पूर्व वर्ष प्रमाण आयु का धारी यथायोग्य संक्लेश वा उत्कृष्ट योग करि पर भव संबंधी कोटिपूर्व वर्ष का आयु जलचर विर्षे उपजने का बांध्या, सो आग कहिएगी योग यवमध्य रचना, ताका ऊपरि स्थान विर्षे अंतर्मुहूर्त तिष्ठ्या, बहुरि अंत जीव गुणहानि का स्थान विर्षे वली का असंख्यातवां भागमात्र काल तिष्ठ्या, कम ते काल गमाइ, कोडिपूर्व आयु का धारी जलचर विर्षे उपज्या । अंतर्मुहूर्त करि सर्व पर्याप्तनि करि पर्याप्त भया । अंतर्मुहुर्त करि बहुरि परभव संबंधी जलचर विर्षे उपजने का कोडिपूर्व प्रायु को बांधे है। तहां दीर्घ आयु का बंध काल करि यथायोग्य संक्लेश करि उत्कृष्ट योग करि उत्कृष्ट योग करि बांध है । सो योग यवरचना का अंत स्थानवी जीव बहुत बार साता कौं काल करि युक्त होता अपने काल विर्षे पर भव संबंधी आयु को घटाप, ताक आयु-वदना द्रव्य का प्रमाण उस्कृष्ट हो है; सो द्रव्य रचना संस्कृत टोका तें जाननी । या प्रकार औदारिक आदि शरीरनि का बंध, उदय, सत्त्व विशेष जानने के अर्थि वर्णन कीया ।
आग श्री माधवचंद्र विद्यदेव बारह गाथानि करि योग मार्गणा विष जीवनि की संख्या कहै हैं -
बादरपुण्णा तेऊ, सगरासीए असंखभागमिदा । विक्किरियसत्तिजत्ता, पल्लासंखेज्जया वाऊ ॥२५॥
बायरपूर्णः, तेजसाः, स्वकराशेरसंख्यभागमिताः ।
विक्रियाशक्तियुक्ताः, पल्यासंख्याता वायवः ॥२५९।। टीका - बादर पर्याप्त तेजकायिक जीव, तिनि विर्षे उन ही जीवनि का जो पूर्वे परिमाण आवली के धन का असंख्यातवां भागमात्र कहा था, तिस राशि कौं असंख्यात का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ, तितने जीव विक्रिया शक्ति करि संयुक्त जानने ।