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सम्हानचन्द्रिका भाषाटीका 1 दो को मप्रतिसत्य कहिए । जैसे किसो विर्षे पटरानीपना न पाइए पर वाका नाम देवी कहिए ।
बहुरि जो अन्य विर्षे अन्य का स्थापन करि, तिस मुख्य वस्तु का नाम कहना; सो स्थापनासत्य कहिए । जैसे रत्नादिक करि निर्मापित चंद्रप्रभ तीर्थंकर की प्रतिमा को चंद्रप्रभ कहिए ।
बहुरि देशादिकं की अपेक्षा भातु इत्यादिक नाम सत्य है । तैसे अन्य अपेक्षा रहित केबल व्यवहार निमित्त जिसका जो नाम होइ, सो कहना, सो नामसत्य कहिए । जैसे किसी का नाम जिनदत्त है; सो जिन भगवान करि दीया होइ, ताकौं जिनदत्त कहिए; सो इहां दान क्रिया की अपेक्षा बिना ही जिनदत्त नाम कहिए।
बहुरि जो पुद्गल के अनेक गुण होत सतें रूप की मुख्यता लीएं वचन कहिए सो रूपसत्य कहिए । जैसे यह पुरुष सफेद है; अंसा कहिए । तहां बाके केशादिक श्याम वा रसादिक अन्य गुण वाकै पाइए है; परि उनकी मुख्यता न करी ।
बहुरि जो विवक्षित वस्तु से अन्य वस्तु की अपेक्षा करि तिस विवक्षित वस्तु कौं हीनाधिक मान वचन कहिए; सो प्रतीत्यसत्य कहिए । याही का नाम प्रापेक्षिक सत्य है । जैसे यहु दीर्घ है असा कहिए, सो तहां किसी छोटे की अपेक्षा याकौं दीर्घ कह्या बहुरि यहु ही यात दीर्घ की अपेक्षा छोटा है; परन्तु वाकी विवक्षा न लीन्ही । प्रैसे हो स्थूल सूक्ष्मादिक कहना, सो प्रतीत्यसत्य जानना ।
बहुरि जो नंगमादि नय की अपेक्षा प्रधानता लीएं वचन कहिए, सो व्यवहारसंत्य जानना । जैसें नैगम नय की प्रधानता करि असा कहिए कि "भात पचै है' सो भात तो पचे पीछे होगा; अब तो चावल ही हैं। तथापि थोरे ही काल में भात होना है; तातै नैगम नय की विवक्षा करि भात पर्याद परिणमने योग्य द्रव्य अपेक्षा सत्य कहिए । आदि शन्द करि संग्रहनयादिक का भी व्यवहार विधान जानना ।
नयंनि का व्यवहार की अपेक्षा जैसे सर्व पदार्थ सत्व रूप हैं वा असत्त्व रूप हैं इत्यादिक वचनं सों व्यवहारसत्य है । नगमादि नय ते संग्रह नयादिक का व्यवहार हो है, जात याकी व्यवहारसत्य कहिए ।