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मालम्लायमणमासम्मम्मम्ममा
सम्यग्ज्ञानानका भाषाटीका पूर्वोक्त उपचार कह्या, तिसके प्रयोजनभूत सर्व जीवनि की दया, तत्त्वार्थ का उपदेश शुक्लध्यानादि सर्व जानने ।
आगं काययोग का निरूपण प्रारंभ है । तहां प्रथम ही काय योग का भेद औदारिक काययोग, ताकौं निरुक्तिपूर्वक कहै हैं -
पुरुमहदुदारुरालं, एयठ्ठो संविजारण तम्हि भवं । • औरालियं तमु (त्तिउ)च्चइ औरालियकायजोगो सो ॥२३०॥
पुरुमहदुदारमुरालमेकार्थः संविजानीहि तस्मिन्भवम् ।
सौगालिक अनुमते औरालिककाययोगः सः ॥२३०॥ टीका - पुरु वा महत् वा उदार वा उराल वा स्थूल ए एकार्थ हैं । सो स्वार्थ विर्षे ठण् प्रत्यय तें जो उदार होइ.वा उराल होंइ, सो औदारिक कहिए बा पौरालिक भी कहिए अथवा भव अर्थ विर्षे ठण् प्रत्यय ते जो उदार विर्षे वा उराल विष उत्पन्न होइ, सो प्रोदारिक कहिए वा औरालिक भी कहिए । बहुरि संचयरूप पुद्गलपिंड, सो प्रौदारिक काय कहिए । औदारिक शरीर नामा नामकर्म के उदय है निपज्या औदारिक शरीर के प्राकार स्थूल पुद्गलनि का परिणमन, सो औदारिक काय जानना । वैक्रियिक आदि शरीर सूक्ष्म परिणमै है, तिनिकी. अपेक्षा यह स्थूल है; ताते औदारिक कहिए है।
इहां प्रश्न -- उपजै है कि सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि जीवनि के स्थूलपना नाही है; तिनिको औदारिक शरीर कैसे कहिए है ?
ताको समाधान - इन हूत बैंक्रियिकादिक शरीर सूक्ष्म परिणम है, ताते तिनकी अपेक्षा स्थूलपना पाया । अथवा परमामम विर्षे असी रूढि है; तातें समभिरूढि करि सूक्ष्म जीवनि के औदारिक शरीर कह्या; सो औदारिक शरीर के निमित्त प्रात्मप्रदेशनि के कर्म-नोकर्म ग्रहण की शक्ति, सो औदारिक काय योग कहिए है । अथवा औदारिक वर्गणारूप पुद्गल स्कंधनि कौं प्रौदारिक शरीररूप परिणमावने की कारण, जो आत्मप्रदेशनि का चंचलपना, सो औदारिक काययोग हे भव्य ! तू जानि । अथवा औदारिक काय सोई औदारिककाय योग है । इहां कारण
१- षट्वंटागम श्वमा पुस्तक १, पृ. २६३ भाषा स. १६० पाठभेद-न विजाण तिवृत्तं ।
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