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सर जोषकाण्ड गाथा १
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टोफा - बीजे. कहिए पूर्व जे कहे, मूल को प्रादि देकरि, बीज पर्यंत बीजजीव उपजने का आधारभूत पुद्गल स्कंध, सो योनीभूते कहिए जिस विषै जीव उपजें जैसी शक्ति संयुक्त होते संतें जल वा कालादिक का निमित्त पाइ, सोई जीव वा और जीव श्रानि उपड़े हैं ।
भावार्थ -- पूर्वे जो बीजं विषे जीव तिष्ठं था, सो जीव तो निकसी गया अर 'उस बीज विषे असी शक्ति रही जो इस विषै जीव प्रति उपजै, तहां जलादिक का निमित्त होते पूर्वे जो जीव उस बीज कौं अपना प्रत्येक शरीर करि पीछे अपना ग्रायु के नाश ते मरण पाइ निकसि गया था, सोई जीव बहुरि तिस ही अपने योग्य जो मूलादि बीज, तींहि विषै पानि उपजै है । अथवा जो वह जीव और ठिकाने उपज्या हो, तो इस बीज विषै अन्य कोई शरीशंसर विषै तिष्ठता जीव अपना आयु के नाश तँ मरण पाइ, आनि उपजे है । किछु विरोध नाहीं ।
जैसे गेहूं विषं जीव था, सो निकसि गया । बहुरि याक बोया, तब उस ही विषे सोई जीव वा अन्य जीव आनि उपज्या; सो यावत् काल जीव उपजने की शक्ति is area काल योनीभूत कहिए । बहुरि जन ऊगने की शक्ति न हो तब प्रयोनीभूत कहिए, जैसा भेद जानना । बहुरि जे मूल आदि देकरि वनस्पति काय प्रत्येक रूप प्रतिष्ठित प्रसिद्ध हैं । तेऊ प्रथम अवस्था विषै जन्म के प्रथम समय तें लगाइ अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत अप्रतिष्ठित प्रत्येक ही रहे हैं । पीछे निगोदजीव जब श्राश्रय करें हैं, तब प्रतिष्ठित प्रत्येक होय हैं ।
आगे श्री माधव चंद्र नामा आचार्य त्रैविद्यदेव सो सप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित . जीवनि का विशेष लक्षण तीन गाथानि करि कहें हैं
गूढसिरसंधिपव्वं, समभंगमहीरुह (पं) च छिण्णरुहं । साहारणं सरीरं तव्विवरीयं च पत्तेयं ॥१८८॥
गूढ शिराधिपर्व, समभंग महोरुकं च छिन्नरुहम् ॥ साधारण शरीर तद्विपरीतं च प्रत्येकम् ॥१८८॥
टीका -- जिस प्रत्येक वनस्पती शरीर का सिरा, संधि, पर्व, गूढ होइ; बाह्य
दीखे नाहीं, वहां सिरा तौ लंबी लकीरसी जैसे कांकडी विषै होइ । बहुरि संधि बीचि