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सम्यग्ज्ञानविका भाषाका ]
ई ३३१
पर्याप्ति, सो भी साधारण हो है । बहुरि एक निगोद शरीर है, तीहि विषे पूर्व अनंत जीव थे । बहुरि दूसरा, तीसरा आदि समय विषं नये अनंत जीव उस ही विषे अन्य अनि उपजै, तो लहां जैसे वे नये उपजे जे जीव आहार आदि पर्याप्ति को घर हैं, तैसे ही पूर्व पूर्व समय विषे उपजे थे जे अनंतानंत जीव ते भी उन ही की साथि श्राहारादिक पर्याप्तिनि को घरे हैं सदृश युगपत् सर्व जीवनि के प्राहारादिक हो है । तातें इनिकों साधारण कहिये है । सो यह साधारण का लक्षण पूर्वाचार्यनि करि कह्या हुवा जानना ।
१ जत्थेक्क मरइ जोवो, तत्थ दु मरणं हवे अनंताणं । arees are एक्को, वक्कणं तत् णंताणं ॥ १६३ ॥
ret faयते जीवस्तन्न तु मरणं भवेदन्तानाम् । प्रक्रामति यत्र एकः प्रक्रमणं तत्रान्तानाम् ॥१९३॥
टीका एक निमोद शरीर विषै जिस काल एक जीव अपना आयु के नाश भर, तिसही काल विषे जिनकी श्रायु समान होइ, असे मनंतानंत जीव युगपत् मरें हैं । बहुरि जिस काल विषै एक जीव तहां उपजे है, उस हो काल विषै उस ही जीव की साथि समान स्थिति के धारक अनंतानंत जीव उपजे हैं, जैसे उपजना मरना का समकालपना कौं भी साधारण जीवनि का लक्षण कहिए है । बहुरि द्वितीयादि समयनि विषै उपजे अनंतानंत जीवनि का भी अपना आयु का नाश होते साथि ही मरना जानना । जैसे एक निगोद शरीर विषै समय-समय प्रति अनंतानंत जीव साथि ही मरे हैं; साथि हो उपजे हैं । निगोद शरीर ज्यों का त्यों रहै है; सो निगोद शरीर की उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात कोडाकोडी सागरमात्र है । सो प्रसंख्यात लोकमात्र समय प्रमाण जानना । सो स्थिति यावत् पूर्ण न होइ तावत् अँसे ही जीवनि का उपजना, मरना हुवा करें है ।
इतना विशेष - जो कोई एक बादर निगोद शरीर विषै वा एक सूक्ष्म निगोद शरीर विषं अनंतानंत जीव केवल पर्याप्त हो उपजे हैं । तहां नाहीं उप है । बहुरि कोई एक शरीर विषै केवल अपर्याप्त ही उपजे 'हैं; तहां पर्याप्त नाहीं उपजे हैं। एक शरीर विषै पर्याप्त अपर्याप्त दोऊ नाहीं उपजें है । जातै तिन जीवनि के समान कर्म के उदय का नियम है ।
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१. 'जत्येवु वक्कम दि' इति षट्खंडागम
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- ववला पुस्तक १, पृष्ठ २७२, गाया १४६ ।