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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४२
टीका प्रथम एक रूप स्थापन करि ऊपरि तैं अपना प्रसारण करि गुण, जो प्रमारण होई, तामैं अकित स्थान का प्रमाण घटावना, भैसें सर्वत्र करना । इहां जो भेद ग्रहण होइ, तार्के परे स्थानकनि की जो संख्या, हा अनंकित कहिए । जैसे विकथा प्रमाद विषै प्रथम भेद स्त्रीकथा का ग्रहण होइ, तौ तहां तार्के परे तीन स्थान रहें, तातें अनंकित का प्रमाण तीन है । बहुरि जो भक्तकथा का ग्रहण होइ, ती तार्के परे दीय स्थान रहें, ताते अनंकित स्थान दोय हैं । बहुरि जो राष्ट्रकथा का ग्रहण होइ, तौ तार्क पर एक स्थान है, तातें अनंकित स्थान एक है । बहुरि जो अपिलकथा का ग्रहण होइ, तो लाके परे कोऊ भी नहीं, तातें तहां अनंकित स्थान ET प्रभाव है। सें ही कषाय, इंद्रिय प्रमाद विषै भी अनंकित स्थान जानना |
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सो कोऊ कहे कि अमुक श्रालाप केथवां है ? तहां आलाप का, ताकी संख्या न जानिए, तो ताकी संख्या जानने कौं उद्दिष्ट कहिए है । प्रथम एक रूप स्थापिए, बहुरि ऊपरि का इंद्रिय प्रमाद संख्या पांच, ताकरि तिस एक की गुरिए, तहां अनंकित स्थानति की संख्या घटाइ अवशेष कौं ताके अनंतर नीचला कषाय प्रमाद कापिंड की संख्या च्यारि, ताकरि गुणिए, वहां भी अनंकित स्थान घटाइ, अवशेष at are waft नीचला विकथा प्रमाद का पिंड व्यारि, ताकरि गुणिए, तहां भी अनंकित स्थान घटाइ, अवशेष रहे तितनां विवक्षित श्रालाप की संख्या हो है । से ही सर्वत्र उत्तरगुण वा शीलभेदनि विषे उद्दिष्ट ल्यायने का अनुक्रम जानना ।
इहां भी उदाहरण दिखाइए हैं - काहूने पूछा कि राष्ट्रकथालापी-लोभीस्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत निद्रालु स्नेहवान सा बालाप केथवा है ?
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तहां प्रथम एक रूप स्थापि, ताकौं ऊपरि का इंद्रिय प्रमाद, ताकी संख्या पांच, तीहिरि गुणे पांच भए । तींहि राशि विषे पंद्रहवां उद्दिष्ट की विवक्षा करि
मैं पहला भेद स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत ऐसा प्रालाप विषै कह्या था, तातें ताके परें रसना, घाण, चक्षु, श्रोत्र ए च्यारि अनंकित स्थान हैं । तात इनकों घटाएं, शेष एक है, ताक नीचला कषाय प्रमाद की संख्या च्यारि करि गुणै, च्यारि भए, सो इस लब्धराशि च्यारि विषे इहां आलाप विषै लोभी कहा था, सो लोभ के परें कोऊ भेद नाहीं । ताते अनंकित स्थान कोऊ नाहीं । इस हेतु तें इहां शुन्य घटाए, राशि जैसा का वैसा ही रह्या, सो च्यारि ही रहे । बहुरि इस राशि कौं या नीचे farer प्रमाद की संख्या च्यारि ताकरि गुणें सोलह भए । इहां बालाप विषै