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[ गोम्मटसार जीवकाम गाथा १२४-१२५ श्रोणि शतानि जत्रिंशत्, घट्पष्टिसहसकानि मरणानि ।
अंतर्मुहूर्तकाले, तावंतश्चेब क्षुबभधाः ॥ १२३ ॥
टीका - क्षुद्रभव कहिए लब्धि अपर्याप्तक जीव, तिनिकों जो बीचि विर्षे पर्याप्तिपनौ विना पाया निरंतरपर्ने उत्कृष्ट होंइ. ती अंतर्मुहूर्त काल विर्षे छथासठि हजार तीन सौ छत्तीस (६६३३६) मरण होइ; बहुरि इतने ही भव कहिए जन्म होइ।
आगे से जन्म-मरण एकेंद्रियादि जीवनि के केते-केते संभवें अर तिनिके काल का प्रमाण कहा ? सो विशेष कहिए हैं -
सीदी सट्ठी तालं, वियले चउवीस होति पंचक्खे । छावठिं च सहस्सा, सयं च बत्तीसमेयक्खे ॥१२४॥
अशीतिः षष्टिः चत्वारिंशत, विकले चतुविशतिभवंति पंचाक्षे ।
षष्टिश्च सहसारिण, शतं च द्वात्रिशमेकाक्षे ॥ १२४ ।।
टीका - पूर्व कहे थे लब्धि अपर्याप्तकानि के निरंतर क्षुद्रभव, तिनिविर्षे एकेंद्रियनि के छयासठि हजार एक सौ बत्तीस निरंतर क्षुद्रभव हो हैं; सो कहिए हैं - कोऊ एकेंद्रिय लब्धि अपर्याप्तक जीद, सो तिस क्षुद्रभव का प्रथम समय तें लगाइ सांस के अठारहवें भाग अपनी आयु प्रमाण जीय करि मरे, बहुरि एकेंद्रिय भया तहां तितनी ही आयु कौं भोगि, मरि करि बहुरि एकेंद्रिय होइ । असे निरंतर लब्धि अप
प्ति करि क्षुद्रभव एकेंद्रिय के उत्कृष्ट होइ तौ छ्यासठि हजार एक सौ बत्तीस होइ, अधिक न होइ । असे ही लब्धि अपर्याप्तक दे इंद्रिय के असी (८०) होइ। तेइंद्रिय लब्धि अपर्याप्तक के साठि (६०) होइ । चौहंद्रिय लब्धि अपर्याप्तक के चालीस (४०) होइ । पंचेंद्रिय लब्धि अपर्याप्त के चौबीस होई, तीहिविर्षे भी मनुष्य के पाठ (८) असैनी तिर्यंच के पाठ, (८) सैनी तिर्यंच के पाठ (८) असे पंचेंद्रिय के चौबीस (२४) होइ । अंसें लब्धि अपर्याप्तकनि का निरंतर क्षुद्रभवनि' का परिमारण कह्या ।
अब एकेंद्रिय लब्धि अपर्याप्तक के निरन्तर क्षुद्रभव कहे, तिनकी संख्या - स्वामीनि की अपेक्षा कहै हैं -
पुढविदगागणिमारुद, साहारणथूलसुहमपत्तेया। एदेसु अपुण्णेसु य, एक्कक्के बार खं छक्कं ॥ १२५ ।।