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है गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १३३
दस सणोरणं पारणा, सेसेगूरगतिमस्स बेऊरणा । पज्जत्तेसिदरेसु य, सत्त दुगे सेसगेगूणा ॥ १३३ ॥
दश संजिनां प्रारणाः शेषकोनमंतिमस्य न्यूनाः ।
पर्याप्तिष्वितरेषु च, सप्त द्विके शेषकैकोनाः ।।१३३॥ टीका - पहिले कहा जोमान के सामीनि का नियम, ताही करि असे भेद पाइए है, सो कहिए है । सैनी पंचेंद्री पर्याप्त के तौ दश प्राण सर्व हो पाइए । पीछे अवशेष असंज्ञी आदि हींद्रिय पर्यन्त पर्याप्त जीवनि के एक-एक घाटि प्रारण पाइए । तहां प्रसनी पंचेंद्रिय के मन विना नव प्राण पाइए । चौइंद्रिय के मन पर कर्ण इंद्रिय विना आठ प्राण पाइए , तेइंद्रिय के मन, कर्ण, नेत्र इंद्रिय बिना सात प्राए पाइए । द्वीन्द्रिय के मन, कर्ण, नेत्र, नासिका बिना छह प्राण पाइए । बहुरि अंतिम एकद्रिय विषं द्वीन्द्रिय के प्राणनि तें दोय घटावना, सो मन, कर्ण, नेत्र, नासिका अर रसना इंद्रिय अर वचनबल, इनि विना एकेद्रिय के च्यारि ही प्राण पाइए हैं ! असे ए प्राग पर्याप्त दशा की अपेक्षा कहे ।
अब इतर जो अपर्याप्त दशा, ताकी अपेक्षा कहिए हैं - सैनी वा असैनी पंचेंद्रिय के ती सात-सात प्राण हैं । जातें पर्याप्त काल विर्षे संभव असे सासोस्वास, वचन बल, मनोबल ए तीन प्राण तहां न होइ । बहुरि चौइंद्रिय के श्रोत्र विना छह पाइए, तंद्री के नेत्र बिना पांच पाइए, बैद्री के नासिका विना च्यारि पाइए, एकेंद्री के रसना विना तीन पाइए, असे प्राण पाइए हैं । इति श्री प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांत'चक्रवतिविरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रंय की जीवतत्वप्रदीपिका नामा संस्कृत टीका के अनुसार सम्यग्ज्ञानचन्द्रिकानामा इस भाषाटीका विष प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा तिनि विष प्रारए प्ररूपरणा
नामा चौथा अधिकार संपूर्ख भया ॥४॥
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