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सम्यप्तानचन्त्रिका भाषाटोका j
[ २५ टीका - जैसे श्रुतज्ञान विर्षे उपदेश्या तसे ही जीव नासा पदार्थ, जिनकरि वा जिनिविर्षे जानिए, ते चौदह मार्गणा हैं। पूर्वं तौ सामान्यता करि गुणस्थान जीवसमास, पर्याप्ति, प्रारण, संज्ञा इनिकरि त्रिलोक के मध्यवर्ती समस्त जीव लक्षण करि वा भेद करि विचारे ।
बहुरि अब विशेषरूप गति-इंद्रियादि मार्गणानि करि तिन ही कौं विचार हैं, असे हे शिष्य, तू जानि । गति आदि जे मार्गणा जब एक जीव के नारकादि पर्यायनि की विवक्षा लीजिए, तब तो जिनि मार्गणामि करि जीव जानिए असे तृतीया विभक्ति करि कहिए। बहुरि जल एक द्रव्य प्रति पर्यायप्ति के अधिकरण को विवक्षा "इनि विर्ष जीव पाइए है' अंसी लीजिए, तब जिनि मार्गरणानि विर्षे जीव जातिए असे सप्तमी विभक्ति करि कहिए । जाते विवक्षा के वश तें कर्ता, कर्म इत्यादि कारकनिकी प्रवृत्ति है ऐसा न्याय का सद्भाव है ।
प्रागै तिनि चौदह मार्गरपानि के नाम कहै हैं - गइइंखियेसु काये, जोगे वेवे कसायमारणेय । संजमदंसणलेस्सा-भविया-सम्मत्तसणि-माहारे ॥१४२॥
गतींद्रियेषु काये, योगे वेदे कषायजाने च ।
संयमदर्शनलेश्यामन्यतासम्यक्त्वसंझ्याहारे ।। १४२॥ टीका - १. गति, २. इंद्रिय, ३. काय, ४. योग, ५. वेद, ६. कषाय, ७. ज्ञान, ८. संयम, ६. दर्शन, १०. लेश्या, ११. भव्य, १२. सम्यक्त्व, १३. संशी, १४. पाहार असे ए गति आदि पद हैं । ते तृतीया विभक्ति वा सप्तमी विभक्ति का अंत लीए हैं । तातै गति करि वा गति विर्षे इत्यादिक असे व्याख्यान करने । सो इनिरि वा इनिविष जीव माय॑न्ते कहिए जानिये, ते चौदह मार्गणा जैसे अनुक्रम करि बाम हैं, तैसे कहेंगे।
प्रागै तिलिविष पाठ सांतर मार्गरणा हैं, तिनिका स्वरूप, संख्या, विधान निरूपण के अथि गाथा तीन कहै हैं -
उवसमसुहमाहारे, वेगुविधयमिस्सणारअपजसे । सासपासम्से सिस्से, सांतसगा मागरणा अठ्ठः।। १४३॥