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छठवां अधिकार : गति प्ररूपणा पनप्रभ जिनकौं भजौं, जीति घाति सब कर्म ।
गुण समूह फुनि पाय जिनि, प्रगट कियो हितधर्म ।। प्राग अरहंतदेव को नमस्काररूप मंगलपूर्वक मार्गणा महा अधिकार प्ररूपण की प्रतिज्ञा करै हैं -
धम्मगुणमगरणाहयमोहारिबलं जिणं गमंसिता । नगरपमहाहियारं, विविहहियारं भरिपस्सामो ॥१४.०॥
धर्मगुसमागरणाहतमोहारिबलं जिनं नमस्कृत्वा ।
मार्गरणामहाधिकार, विविधाधिकारं भविष्यामः ॥१४०॥ टीका - हम जो ग्रंथकर्ता, ते नानाप्रकार का गति, इंद्रियाद्रिक अधिकार संयुक्त जो मार्गणा का महा अधिकार ताहि कहेंगे, असी प्राचार्य प्रतिज्ञा करी । कहा करिके ? जिन जो अर्हन्त भट्टारक, तिसहि नमस्कार करिके। कैसा है जिन भगवान ? रलत्रय स्वरूप धर्म, सोही भया धनुष, बहुरि ताका उपकारी जे झानादिक धर्म, ते ही भए गुण कहिये चिल्ला, बहरि ताके प्राश्रयभूत जे चौदह मार्गरणा, तेही भए मार्गरण कहिए बाण, तिनिकरि हत्या है मोहनीय कर्मरूप अरि कहिये बैरी का बल जाने, ऐसा ज़िन-देव है ।
श्रा, मार्गणा शब्द की निरुक्ति ने लिया लक्षण कहै हैं - ..जाहि व जासु व जीवा, मग्गिज्जंते जहा तहा दिवा ।
तानो चोदस जाणे, सुयणाणे मागणा होति ॥१४१॥ याभिर्वा यासु वा, जीवा मृग्यते यथा तथा पृष्टाः । ताश्चतुर्दश जानीहि श्रुतज्ञाले मार्गरणा भवति ॥१४१।।
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१. षट्खण्डागम - बदला पुस्तक १, पृष्ठ १३३, गापा १५