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गोम्मटसार जीवा गाथा ११८-१९२
सूक्ष्मपर्णं परिमाण ज्ञानगम्य है । या प्रकार इस ग्रन्थ विषै जहां-तहां मान का प्रयोजन जानि मान वर्णन कीया है ।
अब पर्याप्त प्ररूपणा का प्रारम्भ करता संता प्रथम ही दृष्टांतपूर्वक जीवनि के तिनि पर्याप्त करि पूर्णता अपूर्णता दिखावे है -
जह पुण्णापुण्णाई, घिडवत्यादियाई दव्वाई' |
तह पुण्णिवरा जीवा, पज्ञ्जत्तिदरा मुणेयव्वा ॥११८॥
टीका - जैसे लोक विषै गृह, घट, वस्त्र इत्यादिक पदार्थ व्यंजन पर्यायरूप, ते पूर्ण र अपूर्ण दीसँ हैं; जे अपने कार्यरूप शक्ति करि सम्पूर्ण भए, तिनिकों पूर्ण कहिए | बहुरि जिनका प्रारंभ भया किछू भए किछू न भये ते अपने कार्यरूप शक्ति करि संपूर्ण न भए, तिनिकों अपूर्ण कहिए ।
यथा पूर्णापूर्णानि गृहघटनाविकानि प्रयाणि । तथा पूर्णेतरा जीवाः पर्याप्ततरा मंतव्याः ॥११८॥
तैसे पर्याप्त, अपर्याप्त नामा नामकर्म की प्रकृति के उदय करि संयुक्त जीव भी अपनी-अपनी पर्याप्तिनि करि पूर्ण श्रर अपूर्ण हो हैं । जो सर्व पर्याप्तिनि की शक्ति कर संपूर्ण होइ, सो पूर्ण कहिए। बहुरि जो सर्व पर्याप्तिनि की शक्ति करि पूर्ण न होइ सो अपूर्ण कहिये ।
मैं ते पर्याप्त कौन ? अर कौंनके केती पाइए ? सो विशेष कहैं हैं आहार- सरीरिदिय, पज्जती आलपारण भास-मगो । चत्तारि पंचर छपि य, एइंन्दिय - वियल - सण्णीणं ॥ ११६ ॥
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श्राहारशरीरेंद्रियाणि पर्याप्तः यानप्राणभाषामनांसि | ara: पंच पि च, एकेंद्रिय - विकल-संज्ञिनां ॥ ११९ ॥
१. पट्खण्डागम - धवला, पुस्तक-१, पृष्ठ ३१६, सूत्र नं ७४,७५
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३१५ सूत्र नं. ७२,७३
३१३, ३१४ सूत्र नं. ७०,७१
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४. द्रव्यसंग्रह गाथा नं. १.२ की संस्कृत टीका में भी यह उद्धृत है ।