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सम्बरमात्मचन्द्रिका भरपाटीका ]
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पंचक्खतिरिक्खायो, गमजसम्मुच्छिमा तिरिक्खारणं । भोगभुमा गभभवा, नरपुण्रणा गब्भजा चेव ॥६॥ पंचाक्षतियंत्रः, गर्भजसम्मूछिमा तिरश्चाम् ।
भोगभूमा गर्भभवा, नरपूर्ण गर्भजाश्चैव ।।९१॥ टीका -- पंचेंद्रिय तिर्यच, ते गर्भज अर सम्मूर्छन हो हैं । बहुरि तिर्यंचनि विर्षे भोगभूमियां तिर्यंच गर्भज ही हैं । बहुरि पर्याप्त मनुष्य गर्भज ही है।
आगे औपपादिकादिनि विर्षे लब्धि अपर्याप्तकपना का संभवपना-असंभवपना की माह है...
उववादगबभजेसु य, लद्धिअपज्जत्तगा रख रिगयमरण। गरसम्मुच्छिमजीवा, लद्धिअपज्जत्तमा चेव ॥६२॥ उपपायगर्भजेषु च, लब्ध्यपर्याप्तका न नियमेन ।
नरसम्मूछिमजीवा, लब्ध्यपर्याप्तकाश्चैव ॥९२।। टीका - प्रौपपादिकनि विर्षे, बहुरि गर्भजनि विर्षे लब्धि अपर्याप्तक नियम करि नाहीं हैं । बहुरि सम्मूर्छन मनुष्य लब्धि अपर्याप्तक ही हो हैं, पर्याप्त न हो हैं ।
आमै नरकादि गतिति विर्षे वेदनि कौं अवधारण करें हैं -
रइया खलु संढा, रणरतिरिये तिणि होति सम्मुच्छा। संढा सुरभोगभुमा, पुरिसिच्छोवेवगा चेव ॥६३॥
रयिकाः खलु षंढा, नरतिरश्चोत्रयो भवंति सम्मूर्छाः ।
पंढरः सुरभोगभुमाः पुरुषस्त्रीवेदकाश्चैव ॥९३॥ टीका - नारकी सर्व ही नियमकरि षंढा कहिए नपुंसक वेदी ही हैं । बहुरि मनुष्य-तिर्यंचनि विर्षे स्त्री, पुरुष, नपुंसक भेदरूप तीनों वेद हैं । बहुरि सम्मूछन तिथंच पर मनुष्य सर्व नपुंसक वेदी ही हैं । ते सम्मूर्छन मनुष्य स्त्री की योनि वा कांख वा स्तननि का मूल, तिनि विर्ष अर चक्रवर्ती को पट्टराज्ञी बिना सूत्र, विष्टा मादि अशुचिस्थानकनि विर्षे उपजे हैं, ऐसा विशेष जानना । बहुरि देव अर भोग