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सम्पन्झामचन्द्रिका भाषाटीका
प्रमाण प्रावै, तामैं एक घटाए जितने होइ, तितने प्रदेश जघन्य अवगाहना के ऊपरि जुटें कहा होन्. झो कहै हैं -
तस्वड्ढीए चरिमो, तस्सुरि रूवसंजुदे पढमा । संखेज्जभागउड्ढी, उवरिमको रूवपरिवड्ढी ॥१०॥
तबृद्धेश्वरमः, तस्योपरि रूपसंयुते प्रथमा ।
- संख्यातभागवृद्धिः उपर्यतो रूपपरिवद्धिः ॥१०॥ टोका - तोहि अवक्तव्य भाग वृद्धि का अन्त अवगाहन स्थान हो है । बहुरि ए प्रवक्तव्य भाग वृद्धि स्थान कनि के भेद कितने हैं ! सो कहिए है -'प्रादो अंते सुद्धे वहिहिदे रूवसंजुदे डारणे' इस करण. सूत्र करि प्रवक्तव्य भाग वृद्धि का ग्रादिस्थान का प्रदेश प्रमाण अन्तस्थान का प्रदेश प्रमाण विर्षे घटाइ, अवशेष कौं वृद्धि प्रमाण एक-एक का भाग देइ जे पाए तिनि में एक जोडे जितने होइ, तितने प्रवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थान हैं।
बहुरि अब अवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थानकनि की उत्पत्ति को अक सदृष्टि करि व्यक्त करें हैं । जैसे जघन्य अवगाहना का प्रमाण अडतालीस सै (४८००), जघन्य परीतासंख्यात का प्रमाण सोलह, उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण १५, तहां भागहारभूत जघन्य परीतासंख्यात सोलह (१६) का भाग जघन्य अवगाहना अड़तालीस से (४८००) को दीए तीन से पाए, सो इतने जघन्य अवगाहना ते बधैं प्रसंस्पात भाग वृद्धि का अंत अवगाहना स्थान हो है । बहुरि तिस जघन्य अवगाहना अडतालोस से कौं उत्कृष्ट संख्यात पंद्रह, ताका भाम दीए तीन से बीस (३२०) पाए, सो इसने बधे संख्यात भाग वृद्धि का प्रथम प्रवगाहना स्थान हो है । बहुरि इनि दोऊनि के बीच अंतराल विर्षे तोन से एक को प्रादि देकर तीन से उगणोस ३०१, ३०२, ३०३, ३०४, ३०५, ३०६, ३०७, ३०८, ३०६, ३१०, ३११, ३१२ ३१३, ३१४, ३१५, ३१६, ३१७, ३१८, ३१६ पर्यन्त वर्ष जे ए उगरणीस स्थान भेद हो हैं, ते असंख्यात भाग यद्धिरूप वा संख्यात भाग वृद्धिरूप न कहे जाइ, जाते जघन्य असंख्यात का भी वा उत्कृष्ट संख्यात का भी भाग दीए ते तोन से एक आदि न पाइए हैं । काहे ते ! जातै जघन्य असंख्यात का भाग दीए तीन से पाए, उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीए तीन से बीस पाए, इनि ते तिनको संख्या होन अधिक है। ताते इनिकौं प्रवक्तव्य भाग वृद्धिरूप स्थान कहिए तो इहा प्रवक्तव्य भाग वृद्धि विर्षे भागहार का प्रमाण कैसा संभव है ! सौ कहिए है - जघन्य का प्रमाण अड़तालीस