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सुभ्यानका भाषाटीका ]
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अंत अवगाहना स्थान ल्यावने विषे गुणकार हो है । याकरि जघन्य श्रवगाहन सोलह की गुणे, अवक्तव्य गुण वृद्धि का अंत अवगाहन स्थान की उत्पत्ति हो है; सो अवलोकनी । अथवा प्रवक्तव्य गुण वृद्धि के अंत अवगाहन स्थान तरेसठ कौं जघन्य
गान सोलह का भाग दे पाया तीन पर पंद्रह सोलहवां भाग, इस करि जघन्य अवगाहन सोलह को गुर्णे, प्रवक्तव्य गुण वृद्धि का अंत अवगाहना स्थान का प्रदेश प्रमाण हो है । सो सर्व प्रवक्तव्य गुरु वृद्धि का स्थापन गुरणचास आदि एकएक बघता तरेसठ पर्यन्त जानना । ४६, ५०, ५१, ५२, ५३, ५४, ५५,५६,५७, ५८, ५६, ६०, ६१, ६२, ६३ । बहुरि इस ही अनुक्रम करि अर्थसंदृष्टि विषे भी एक घाटिः जघन्यः अवगाहन प्रमाण इस अवक्तव्य - गुण वृद्धि के स्थान जानते । बहुरि अब पूर्वोक्त वक्तव्य गुरण वृद्धि का अन्त अवगाहन स्थान विषै एक प्रदेश जुड़ें, असंख्यात गुण वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान हो है ।
रूवत्तरेण तत्तो, श्रावलियासंख भाग गुणगारे | तपाउगे जावे, वा कम ११२५ पोत्तरे तत प्रालिका संख्यभागगुणकारे । . तत्प्रायोग्ये जाते वायोरवगानं क्रमशः ॥११०॥
टीका ततः कहिए तीहि असंख्यात गुण वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान तैं मागें एक-एक प्रदेश वृद्धि करि असंख्यात गुरण वृद्धि के अवगाहन स्थान असंख्यात हो हैं । तिनिकों उलंघि एक स्थान विषे यथायोग्य आवलि का असंख्यातवां भाग प्रमाण असंख्यात का गुणकार, सो सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्त निगोद का जघन्य
गाग्य का होते संते सूक्ष्म वायुकायिक लब्धि अपर्याप्त का जघन्य श्रवगाहन स्थान की उत्पत्ति हो है । इहां ए केले स्थान भए ! तहां' 'आदी अंते सुद्धे' इत्यादि सूत्र करि भादि स्थान को अन्त स्थान विष घटाह, अवशेष को वृद्धि एक का भाग देइ लब्ध राशि विषं एक जोड़ें, स्थानकनि का प्रमाण हो हैं ।
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सर्व अवगाहन के स्थानकनि का गुणकार की उत्पत्ति का अनुक्रम कहे हैंएवं ज्वरि किणेश्रो, पदेसवड ढिक्कमो जहाजोग्गं । Horrorsof-य, जोक्समासाण विच्चाले ॥१९१॥
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एवमुपपि ज्ञेयः, प्रदेशवृद्धिको यथायोग्यम् । सर्वferre जीवसमासानामंतराले ॥ १११ ॥ ।