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सम्ममानवविका भावाटीका
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के ५१, ५२, ५३, ५४ | चौदहवां समय के ५२, ५३, ५४, ५५ । पंद्रहवां समय के ५३. १४. .! सोलहवां गणय के ५४, ५५, ५६, ५७ खंड जानने ।
जातें ऊपरि-ऊपरि सर्वधन एक-एक ऊर्ध्व चय करि अधिक हैं । इहां सर्व जघन्य खंड जो प्रथम समय का प्रथम खंड, ताके परिणामनि के अर सर्वोत्कृष्ट खंड अंत समय का अंत का खंड, ताके परिणामनि के किस ही खंड के परिणामनि करि सहित समानता नाहीं है; जाते अवशेष समस्त परि के वा नीचले समय संबंधी खंडनि का परिणाम पुंजनि के यथासंभव समानता संभव है । बहुरि इहां ऊर्व रचना विर्षे 'मुहभूमि जोगदले पदमुरिणदे पदघणं होदि' इस सूत्र करि मुख एक सौ बासठि, भर भूमि दोय सौ बाइस, इनिकों जोड़ि ३८४ । प्राधा करि १६२ गच्छ, सोलह करि गुणं सर्वधन तीन हजार बहत्तरी हो है । अथवा मुख १६२, भूमि २२२ कौं जोडै ३०४, प्राधा कीये मध्यधन का प्रमाण एक सौ बाणवै होइ, ताकौं गच्छ सोलह करि गुण सर्वधन का प्रमाण हो है । अथवा 'पहातमुखमादिधनं' इस सूत्र करि गच्छ
सोलह करि मुख एक सौ बासठि कौं गुण, पचीस से बाणवै सर्वसमय संबंधी प्रादि ...धन हो है । बहुरि उत्तरचन पूर्व च्यारि सं असी कहा है, इनि दोऊनि कौं मिलाएं
सर्वधन का प्रमाण हो है । बहुरि गच्छ का प्रमाण जानने की 'यादी अंसे सुध्दे वट्टिहदे ..सबसजुदे ठाणे' इस सूत्र करि आदि एक सौं बासठि, सो अंत दोय से बाईस में घटाएं
अवशेष साठि, ताकी वृद्धिरूप चय च्यारि का भाग दीएं पंद्रह, तामैं एक जोडें गच्छ का प्रमाण सोलह श्राव है। जैसे दृष्टांतमात्र सर्वधनादिक का प्रमाण कल्पना करि वर्णन कीया है, सो याका प्रयोजन यहु - जो इस दृष्टांत करि अर्थ का प्रयोजन नीकै समझने में आवै ।
अब यथार्य वर्णन करिए है - सो ताका स्थापन असंख्यात लोकादिक की अर्थसंदृष्टि करि वा संदृष्टि के अयि समच्छेदादि विधान करि संस्कृत टीका विर्षे दिखाया है, सो इहां भाषा टीका विर्षे मागे संदृष्टि अधिकार जुदा करेंगे, तहां इनिकी भी अर्थसंदृष्टि का अर्थ-विधान लिखेंगे तहां जानना । इहां प्रयोजन मात्र कथन करिए है । अाग भी जहां अर्थसंदृष्टि होय, ताका अर्थ वा विधान प्राग संदृष्टि अधिकार विर्षे ही देख लेना । जायगा-जायगा संदृष्टि का अर्थ लिखने से ग्रंथ प्रचुर होइ, अर कठिन 'होइ; तातें न लिखिए हैं । सो इहां त्रिकालवर्ती नाना जीव संबंधी समस्त अध:प्रवृत्तकरण के परिणाम असंख्यात लोकमात्र हैं; सो सर्वधन जानना । बहुरि अंध: