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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७४-७५
टीका - पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेज कायिक, वायुकायिक, पर वनस्पतिकायिनि विषै दोय भेद नित्यनिगोद साधारण, चतुर्गतिनिमोद साधारण ए छह भए । तें एक-एक भेद बादर सूक्ष्म करि दोय-दोय भेदरूप हैं; से बारह भए । बहुरि प्रत्येक शरीररूप वनस्पतीकायिक के प्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित ए दोय भेद हैं । बहुरि विकलेंद्रिय के बेइंद्री, इंद्री, चौइंद्री, ए तीन भेद । बहुरि पंचेद्रिय के संज्ञी पंचेंद्रिय, असंज्ञी पंचेंद्रिय ए दोय भेद । ए सर्व मिलि सामान्य अपेक्षा उगणीस arcane हो हैं । बहुरि ए सर्व ही प्रत्येक पर्याप्तक, निर्वृत्ति अपर्याप्रक, लब्धि अपर्याप्तक असें तीन-तीन भेद लीए हैं । तातें विस्तार तें जीवसमास सत्तावन भेद संयुक्त हो है ।
आगे इनि सत्तावन जीव-भेदनि के गर्भित विशेष दिखावने के अथि स्थानादिक च्यारि अधिकार कहे हैं -
ठाणेहिं वि जोगीहि थि, देहोग्गाहणकुलाण भेदेहि । utaanter सव्वे, रुविवया जहाकमसो ॥७४॥ स्थानैरपि योनिभिरपि देहावगाहनकुलानां भेदः । जीवसमासाः सर्वे प्ररूपितव्या यथाक्रमशः ॥७४॥
टीका स्थानकft करि, बहुरि योनि भेदनि करि, बहुरि देह की श्रवगाहना के भेदनि करि, बहुरि कुलभेदनि, करि सर्व ही ते जीवसमास यथाक्रम सिद्धांत परिपाटी का उल्लंघन जैसें न होइ तेसे प्ररूपण करने योग्य हैं ।
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ari जैसे उद्देश कहिए नाम का क्रम होइ, तैसे ही निर्देश कहिए स्वरूप निर्णय क्रम करि करना । इस न्याय करि प्रथम कथा जो जीवसमास विषे स्थानाधिकार, ताक गाथा च्यारि करि कहे हैं।
सामण्णजीव तसथावरे, इगिविगलसयलच रिमबुगे । इंfarer after य, बुतिचदुपणगभेदजु ॥७५॥
सामान्यजीवः सस्थावरयोः, एक विकल सकल चरमद्विके । इंद्रियाययोः वरमस्य च, द्वित्रिचतुः पंचभेदयुते ||७५ ||