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गोम्मटसार जीवकास गाथा १४-१५ असें गल्या है ज्ञानावरणादि कर्मरूप अंधकार जिनिका, असे जिनदेवनि करि कहा है ।
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बहुरि ते अपूर्वकरण जीव सर्व ही प्रथा; समय में यानि हनीय नामा कर्म के क्षपाबने कौं वा उपशम करने कौं उद्यमवंत हो हैं ! याका अर्थ यहु - जो गुणश्रेरिणनिर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिखंडन, अनुभागखंडन असे लक्षण धरै जे च्यारि अावश्यक, तिनकौं करें हैं।
तहां पूर्व बांध्या था जैसा सत्तारूप जो कर्म परमाणुरूप द्रव्य, तामें सौं काढि जो द्रव्य गुणश्रेणी विषं दीया, ताका गुणश्रेणी का काल विर्षे समय-समय प्रति • असंख्यात-असंख्यातगुणा अनुक्रम लीए पंक्तिबंध जो निर्जरा का होना, सो गुणश्रेरिणनिर्जरा है।
बहुरि समय-समय प्रति गुरगकार का अनुक्रम में विवक्षित प्रकृति के परमाणु पलटि करि अन्य प्रकृतिरूप होइ परिणमें सो गुण संक्रमण है ।
बहुरि पूर्व बांधी थी असी सत्तारूप कर्म प्रकृतिनि की स्थिति, ताका घटावना; सो स्थिति खंडन कहिए। - बहुरि पूर्व बांध्या था असा सत्तारूप अप्रशस्त कर्म प्रकृतिनि का अनुभाग, ताका घटावना; सो अनुभाग खंडन कहिए। असे च्यारि कार्य अपूर्वकरण विर्षे अवश्य हो हैं। इनिका विशेष वर्णन प्रामें लब्धिसार, क्षपणासार अनुसार अर्थ लिखेंगे, तहाँ जानना।
णिहापयले पठटे, सदि आऊ उवसमंति उसमया। खवयं ढुक्के खवया, रिणयमेण खवंति मोहं तु ॥५॥ निद्राप्रचले नष्टे, सति प्रायुधि उपशमयंति उपशमकाः ।
क्षपकं दौकमानाः, सपका नियमेन क्षपयंति मोहं तु.॥५५॥ टीका - इस अपूर्वकरण गुणस्थान विर्षे विद्यमान मनुष्य आयु जाके पाइए, ऐसा अपूर्वकरण जीव के प्रथम भाग विर्षे निद्रा पर प्रचला - ए दोय प्रकृति .. बंध होंने ते व्युच्छित्तिरूप हो है ।
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