________________
१३४ ]
[ गोम्मटसार गरेकाण्ड गाथा ४
वेद सम्यग्दृष्टि प्रप्रमत्तसंयत गुणस्थानवतीं जीव, सो प्रथम ही अनंतानुबंधी के चतुष्क कौं प्रधःकरणादि तीन करणरूप पहिले करि विसंयोजन करें है ।
विसंयोजन कहा करें है ?
अन्य प्रकृतिरूप परिणामावनेरूप जो संक्रमण, ताका विधान करि इस अनंताबन्धी के चतुष्क के जे कर्म परमाणु, तिनक बारह कषाय और नव नोकषायरूप परिणमा है ।
बहुरि ताके अनंतर अंतर्मुहुर्तकाल ताईं विश्राम करि जैसा का तैसा हि, बहुरि तीन करण पहिले करि, दर्शन मोह की तीन प्रकृति, तिन को उपशमाय, द्वितीयपशम सम्यग्दृष्टि हो है ।
reat direरण पहिले करि, तीन दर्शनमोह की प्रकृतिनि को खिपाइ, क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो है ।
बहुरिया नंतर वाई प्रमत्त ते प्रमत्त विषै प्रमत्त तैं श्रप्रमत्त विषै हजारांबार गमनागमन करि पलटनि करें हैं । बहुरि ताके अनंतर समय-समय प्रति अनंतगुणी विशुद्धता की वृद्धि करि वर्धमान होत संता इकईस चारित्र मोह की प्रकृतिनि के उपशमावने कौं उद्यमवंत हो है । अथवा इकईस चारित्र मोह की प्रकृति क्षपावने कौं क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही उद्यमवंत हो है ।
भावार्थ उपशम श्रेणी को क्षायिक सम्यग्दृष्टि वा द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि दोऊ चढे र क्षपक श्रेणी की क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही चढ़ने की समर्थ है । उपशम सम्यग्दृष्टि क्षपक श्रेणी की नाहीं चढ़े है । सो यहु जैसा सातिशय अप्रमत्तसंयत, सो अन्तानुबंधी चतुष्क बिना इकईस प्रकृतिरूप, तिस चारित्रमोह करें उपशमावने या क्षय करने कौं कारणभूत असे जे तीन करण के परिणाम, तिन विषै प्रथम अधःप्रवृत्तकरण को करें है; असा अर्थ जानना |
-
अधःप्रवृत्तकरण का निरुक्ति करि सिद्ध भया जैसा लक्षण को कहे हैं - जह्या उवरिमभावा, हेट्ठिमभावहिं सरिसगा होंति । तह्मा पढमं करणं, अधापवत्तो ति णिद्दिट्ठ ॥४८॥