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“सम्यज्ञानयमिका भाषाटीका j । प्रागे पीछे कहा जो दूसरा प्रस्तार, ताकी अपेक्षा अक्षपरिवर्तन कहिए अक्षसंचार, ताका अनुक्रम कहै हैं -
पढमक्खो अंतगदो, आदिगदे संकमेदि बिदियक्खो। वोणिवि गंतूर्णतं, आदिगदे संकमेदि तदियक्खो ॥३६॥
प्रथमाक्ष अंतगतः प्रादिगते संक्रामति द्वितीयाक्षः।
द्वावपि गत्वांतमाधिपते, संकामति तृतीयाक्षः ॥३९॥ टीका - पहिला प्रमाद का प्रक्ष कहिए भेद विकथा, सो आलाप का अनुक्रम करि अपने पर्यन्त जाइ, बहुरि बाडि करि अपने प्रथम स्थान को युगपत् प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, सो अपने दूसरे स्थान कौं प्राप्त होइ । । भावार्थ - पालापनि विर्षे पहिले तो विकथा के भेदनि कौँ पलटिए, क्रम ते स्त्री, भक्त, राष्ट्र, अवनिपालकथा च्यारि पालापनि विषं कहिए पर अन्य प्रमादनि का पहिला पहिला ही भेद इन चारो पालापनि विर्षे ग्रहण करिए । तहां पीछे पहिला विकथा प्रमाद अपना अंत अवनिपालकथा तहां पर्यंत जाइ, बाहुडि करि अपना स्त्रीकथारूप प्रथम भेद कौं जब प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमाद कषाय, सो अपना • पहला स्थान क्रोध को छोडि, द्वितीय स्थान मान कौं प्राप्त होइ । बहुरि प्रथम प्रमाद का अक्ष पूर्वोक्त अनुक्रम करि संचार करता अपना पर्यन्त कौं जाइ, बाहुडि करि युगपत अपना प्रथम स्थान को जब प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमादं का प्रक्ष कषाय, सो अपना तीसरा स्थान को प्राप्त हो ।
भावार्थ - दूसरा कषाय प्रमाद दूसरा भेद मान की प्राप्त हुवा, तहां भी पूर्वोक्त प्रकार पहला भेद क्रम ते च्यारि पालापनि विर्षे क्रम तें पलटी, अपना पर्यन्त भेद ताई जाइ, बाहुडि अपना प्रथम भेद स्त्रीकथा को प्राप्त होइ, तब कषाय प्रमाद अपना तीसरा भेद माया कौं प्राप्त हो है । बहुरि जैसे ही संचार करता, पलटता दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, सो जब अपने अंत पर्यन्त भेद को प्राप्त होइ, तब प्रथम अक्ष विकथा, सो भी अपना पर्यन्त भेद को प्राप्त होइ तिष्ठ।
- . भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार च्यारि पालाप माया विष, च्यारि आलाप लोभ विर्षे भएँ कषाय अक्ष अपना पर्यन्त भेद लोभ, ताकौं प्राप्त भया । अर इनिविर्षे
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