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नाभाटका 1
सागारी उवजोगो, णाणे मग्गाि दंसणे मग्गे । अणगारो उवजोगो, लीणोत्ति जिर्णोह विद्दिट्ठ ॥७॥ का उपयोग ज्ञानमार्गायां दर्शनमार्गगाथाम् । arrer उपयोगो लीन इति जिनैनिर्दिष्टम् ॥७॥
टीका ज्ञानमार्गणा विषै सांकार उपयोग गर्भित है । जाते ज्ञानावरण, atara के क्षयोपशम ते उत्पन्न ज्ञाता का परिणमन का निकटपना होते ही विशेष ग्रहण रूप लक्षण वरें जो ज्ञान, वाकी उत्पत्ति है, तातै कार्य-कारण करि कीया एकत्व संभव है । बहुरि दर्शनमार्गणा विषे अनाकार उपयोग गर्भित है । जाते दर्शनावरण, वीर्यान्तराय के क्षयोपशम करि प्रकट भया पदार्थ का सामान्य ग्रहणरूप व्यापार होते ही पदार्थ का सामान्य ग्रहणरूप लक्षण धरें जो दर्शन, ताकी उत्पत्ति है, ता कार्य-कारण भाव बने है । से यहु गर्भितभाव पूर्वोक्त रीति करि जिन जे अर्हन्तादिक, तिनिकरि निर्दिष्ट कहिए कया है । बहुरि अपनी रुचि करि रच्या हुवा नाहीं है। भैंसे जीवसमासादिकनि के मास्थान विषे गर्भित भाव का समर्थन करि गुलस्थान अर मार्गणास्थान ए प्ररूपणा दोय प्रतिपादन करि । बहुरि teaser करि वीस प्ररूपणा पूर्वी कहीं, तेई कहिए है । पूर्वे गाथा विषे 'भशिताः '
सा पद का, ताकरि वीस प्ररूपणा परमागम विषे प्रसिद्ध हैं, तिनका प्रकाशन करि तिनका विशेष कथन विषे स्वाधीनपना अपनी इच्छा के अनुसारि कहना, सो छोड्या है | जैसे यह न्याय तैसें ही जोडिए है ।
आगे तिनि बीस प्ररूपणानि विषे पहले कही जो गुणस्थानप्ररूपणा, ताका प्रतिपादन के अथि प्रथम गुणस्थान शब्द की निरुक्तिपूर्वक अर्थ कहे हैं -
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जेहिं दुलक्खिज्जेते, उदयादिसु संभवेहि भावेहिं । जीवा ते गुणसण्णा, णिहिट्टा सव्ववरसीहिं ॥८॥
येस्तु मक्ष्यंते, उदयादिषु संभवर्भावः । जीवास्ते गुणसंज्ञा, निद्दिष्टाः सर्वदर्शिभिः ॥
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टीका - मोहनीय आदि कर्मनि का उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम परिणामरूप जे अवस्था विशेष, तिनको होते संतै उत्पन्न भए जे भाव कहिए जीव के
१- षट्खंडागम - घवला पुस्तक १ गाथा १०४, पृष्ठ १६२.