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सम्पजानचन्द्रका भावाटीका ।
टीका - ए उपलक्षणपना करि कहे हैं । एक का नाम लेने ते अन्य भी ग्रहण करने, तातें ऐसे कहने - बुद्धदर्शी जो बौद्धमती, ताकौं आदि देकरि एकांत मिथ्यादृष्टि हैं । बहुरि यज्ञकर्ता ब्राह्मण प्रादि विपरीत मिथ्यादृष्टि हैं । बहुरि तापसी आदि विनय मिथ्यादृष्टि हैं । बहुरि इन्द्रनामा जो श्वेतांबरनि का गुरु, ताकौं आदि देकरि संशय मिथ्यादृष्टि हैं । बहुरि मस्करी (मुसलमान) संन्यासी की प्रादि देकरि अज्ञान मिथ्यादृष्टि हैं। वर्तमान काल अपेक्षा करि ए भरतशेष विषं संभवने बौद्धमती आदि उदाहरण कहे हैं ।
आग प्रतत्त्वश्रद्धान है लक्षण आका, असे मिथ्यात्व कौं प्ररूप हैं - मिच्छंरा वेदंतो, जीवो विवरीयदसणो होदि। ण य धम्म रोचेदि हु, महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥१७॥ मिथ्यात्वं विहन् जीयो, विपरीतदर्शनो भवति ।
न च धर्म रोचते हि, मधुरं खलु रसं यथा ज्वरितः ॥१७॥ टीका - उदय आया मिथ्यात्व कौं वेदयन् कहिए अनुभवता जो जीव, सो विपरीतदर्शन कहिए अतत्त्वश्रद्धानसंयुक्त है, अयथार्थ प्रतीत करं है। बहुरि केवल प्रतत्त्व ही कौ नाहीं श्रद्ध है, अनेकांतस्वरूप जो धर्म कहिए वस्तु का स्वभाव अथवा रत्नत्रयस्वरूप मोक्ष का कारणभूत धर्म, ताहि न रोचते कहिए नाहीं रूचिरूप प्राप्त
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इहां दृष्टांत कहै हैं - जैसे ज्वरित कहिए पित्तज्वर सहित पुरुष, सो मधुर - मीठा दुग्धादिक रस, ताहि न रोचै है; तैसें मिथ्यादृष्टि धर्म को न रोचे है, ऐसा अर्थ जानना।
इस ही वस्तु स्वभाव के श्रद्धान कौं स्पष्ट कर हैं -
मिच्छाइट्टी जीवो, उवठ्ठपवयणं ण सद्दहदि । सद्वदि असम्भावं, उवइनें वा अणुवइटें ॥१८॥ मिथ्यादृष्टिर्जीवः उपदिष्टं प्रवचनं न श्रद्दधाति । श्रद्दधाति असद्भावं, उपदिष्टं या अनुपदिष्टम् ॥१८॥
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१. पटखण्झरम - बक्ला पुस्तक-१, पृष्ठ १६३, गाथा १०६.