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सारंगगनणा
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१०. ]
। गोम्मटसार जीवकाड गापा २५ अन्यकरि कराया अर्हन्तप्रतिबिबादिक विषं यह अन्य का है, ऐसे पर का मानिकरि भेदरूप भजन करै है; ताते चल कहा है। ... इहां दृष्टांत कहै हैं - जैसे नाना प्रकार कल्लोल तरंगानि की पंक्ति विष जल एक ही अवस्थित है, तथापि नाना रूप होइ चल है; तैसें मोह जो सम्यक्त्व प्रकृति का उदय, ताते श्रद्धान है, सो भ्रमण रूप चेष्टा करै है । : : । भावार्थ - जैसे जल तरंगनि विर्षे चंचल होइ, परंतु अन्यभाव कौं न भजे, में वेदक समादृष्टि कापना वा अन्य का कराया जिनबिबादि विषं यह मेरा, यह अन्य का इत्यादि विकल्प कर है, परंतु अन्य देवादिक कौं नाहीं भजै है। अब मलिनपना कहिए है -
तदप्यलब्धमाहात्म्यं पाकात्सम्यक्त्वकर्मणः।
मलिनं मलसंगेन शुद्धं स्वर्णमियोद्भवेत् ।। याका अर्थ- सो भी वेदक सम्यक्त्व है, सो सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से न पाया है माहात्म्य जिहि, ऐसा हो है । बहुरि सो शंकादिक मल का संगकरि मलिन हो है । जैसे शुद्ध सोना बाघ मल का संयोग से मलिन हो है, तैसे वेदक सम्यक्त्व शंकादिक मल का संयोग नै मलिन हो है । अब प्रगाढ कहिए है -
स्थान एव स्थितं कंप्रमगादमिति कीर्त्यते । वायष्टिरिवायत्तस्थाना करतले स्थिता ॥ समेग्यनंतशक्तित्वे सर्वेषामहतामयं ।।
देवोऽस्मै प्रभुरेषोस्मा इत्यास्था सुशामपि । . याका अर्थ - स्थान कहिए प्राप्त, आगम, पदार्थनि का श्रद्धान रूप अवस्था, तिहिं विर्षे तिष्ठता हुआ ही कांप, गाढा न रहै, सो अगाद ऐसा कहिए है ।
ताका उदाहरण कहैं हैं - असे तीव्र रुचि रहित होय सर्व अर्हन्त परमेष्ठीनि के अनंतशक्तिपना समान होते संते, भी इस शांतिकर्म, जो शांति क्रिया ताकै अथि शांतिनाथ देव है, सो प्रभु कहिए समर्थ है । बहुरि इस विघ्ननाशन प्रादि क्रिया के अणि पार्श्वनाथ. देव समर्थ है । इत्यादि प्रकार करि रुचि, जो प्रतीति, ताकी शिथिलता संभव है । तातें बूढे का हाथ विर्षे लाठी शिथिल संबंधपना करि अगाठ है, तैसें सम्यक्त्व अगाढ़ है।
मामला
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जरीना