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[ गरेमटसार जीवकाष्ट गाथा ३४ व्यक्ताव्यक्तप्रमादे यो वसति प्रमससंयसो भवति ।
सकलगुणशीलकलितो, महावती चित्रलाचरणः ॥३३॥ टीका - व्यक्त कहिए आपके जानने में आवै, बहुरि अध्यक्त कहिए प्रत्यक्ष जानौनि के ही जानने योग्य जैसा जो प्रमाद, तीहिविर्षे जो संयत प्रवर्ते, सो चारित्रमोहनीय का क्षयोपशम का माहात्म्य करि समस्त गुण अर शील करि संयुक्त महावती हो है। अपि शन्द करि प्रमादी भी हो है, पर महानती भी हो है । इहां सकलसंयमपनों महानतीपनों देशसंयत अपेक्षा करि जानना, ऊपरि के गुणस्थाननि की अपेक्षा नाहीं है । तिस कारण ते ही प्रमत्तसंयत चित्रलाचरण है, असा का है । चित्रं कहिए प्रमाद करि मिश्ररूप कौं 'लाति' कहिए गहै - कर, सो चित्रलकहिए । चित्रल आचरण जाक होइ, सो चित्रलाचरण जानना । अथवा चित्रल कहिए सारंग, चीता, तिहि समान मिल्या हवा काबरा आचरण 'जाका होइ, सो चित्रलाचरण जानना । अथवा वित्तं लाति कहिए मन कौं प्रमादरूप करि कहै, सो. चित्तल कहिए । चित्तल है आचरण जाका, सो चिसलाचरण जानना । अंसी विशेष मिरुक्ति भी पाठातर अपेक्षा जानना ।
प्रागै तिनि प्रमादनि का नाम, संख्या दिखावने के अथि सूत्र कहैं हैं -
विकहा तहा कसाया, इंदियरिणदा तहेव परणयो य । चदु चदु परगमगंग, होति पमादा हु परणरस ॥३४॥
विकथा तथा कषाया, इंद्रियनिग्रा तथैव प्रणयश्च । ::... चतुश्चतुः पञ्चकक, भवति प्रमादाः खलु पंचवश ॥३४॥
टीका - संयमविरुद्ध जे कथा, ते विकथा कहिए । बहुरि कषंति कहिए संयमगुरण कौं पाते, ते कषाय कहिएं । बहुरि संयम विरोधी इंद्रियनि का विषय प्रवृत्तिरूप व्यापार, ते इंद्रिय कहिए । बहुरि स्त्यानगृद्धि प्रादि तीन कर्मप्रकृतिनि का उदय करि वा निद्रा, प्रचला का तीन उदय करि प्रकट भई जो जीव के अपने दृश्य पदार्थनि का सामान्य मात्र ग्रहण कौं रोकनहारी जडरूप अवस्था, सो निद्रा है । बहुरि बाद्य पदार्थनि विर्षे ममत्वरूप भाव सो, प्रणय कहिए स्नेह है । ए क्रम ते विकथा च्यारि, कषाय च्यारि, इंद्रिय पांच, निद्रा एक, स्नेह एक असे सर्व मिलि प्रमाद पंद्रह
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१. पटखंडामम - पवला, पुस्तक १, पृष्ठ १७६ माया ११४.
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