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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीको
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मिथ्यादृष्टि है। इस निरुक्ति से भी पुर्वं ग्रह्या जो प्रतत्त्वश्रद्धान, ताका सर्वथा त्याग बिना, तीहि सहित ही तत्व श्रद्धान हो है। जाते तैसे ही संभवता प्रकृति का उदयरूप कारण का सद्भाव है।
सो संजमण गिण्हवि, देसजमं वा रण बंधदे आउं। सम्मं वा मिच्छ वा, पडिवज्जिय मरदि गियमरण ॥२३॥ स संयम न गृह्णाति, देशयमं या न बध्नाति प्रायुः ।
सम्यक्त्वं वा मिथ्यात्वं, या प्रतिपद्य म्रियते नियमेन ॥२३॥ टीका ~ सो सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है, सो सकलसंयम वा देशसंयम कौं ग्रहण कर नाही, जाते तिनके ग्रहण योग्य जे करणरूप परिणाम, तिनिका तहां मिश्रमुस्थान विर्षे असंभव है। बहुरि तैसे ही सो सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव च्यारि गति संबंधी आयु कौं नाहीं बांधे है । बहुरि मरणकाल विर्षे नियमकरि सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणाम कौ छोडि, असंयत सम्यग्दृष्टीपना की वा मिथ्यादृष्टीपना कौं नियमकरि प्राप्त होइ, पीछे मरै है।
भावार्थ -- मिथमुणस्थान त पंचमादि गुणस्थान विषं चढना नाहीं है। बहुरि तहां प्रायुबंध वा मरणं नाहीं है ।
सम्मत्तमिल्छपरिणामेसु जहिं आउगं पुरा बद्धं । . तहिं मरणं मरणंतसमुग्धादो वि य ग मिस्सम्मि ॥२४॥२ सम्यक्त्वमिथ्यात्वपरिणामेषु यत्रायुष्कं पुरा बद्धम् । . तत्र मरण मरणांतसमुद्घातोऽपि च न मिश्रे ॥२४॥
टीका - सम्यक्त्वपरिणाम पर मिथ्यात्वपरिणाम इनि दोऊनि विर्षे जिह परिणाम विर्षे पुरा कहिए सम्यग्मिथ्यादृष्टीपनाको प्राप्ति भए पहिले, परभव का प्रायु बंध्या होइ, तीहि सम्यक्त्वरूप का मिथ्यात्वरूप परिणाम वि प्राप्त भया ही जीव का मरण हो है, असा नियम कहिए है। बहुरि अन्य केई प्राचार्यनि के
। १. पखंडागम - चवला पुस्तक ४, पृष्ठ ३४१, गाथा ३३ . २. पखंडागम - धवला पुस्तक ४, पृष्ठ ३४६ गाथा ३३ एवं पुरतफ ५, पृष्ट ३१ टीका.