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[ गोम्मटसार जोधका माथा ११ बहुरि योग याकै है सो योगी, योगी नाही सो अयोगी, केवलिजिन ऐसी अनुवृत्ति से अयोगी, सोई केवलिजिन असें अयोगकेवलिजिन है।
असे ए मिथ्यादृष्टि प्रादि अयोगिकेवलिजिन पर्यन्त चौदह जीवसमास कहिए गुणस्थान ते जानने ।
कसे यह जीवसमास ऐसी संज्ञा गुणस्थान की भई ?
तहां कहिए हैं - जीव है, ते समस्पंसे कहिए संक्षेपरूप करिए इनिविणे, ते जीवसमास अथवा जीव हैं। ते सम्यक् भासते एषु कहिए भले प्रकार तिष्ठ हैं, इनिविर्षे, ते जीवसमास, असे इहां प्रकरण जो प्रस्ताव, ताकी सामर्थ्य करि गुणस्थान ही जीवसमास शब्द करि कहिा है ! जाने ऐसा हनन है- 'बाद प्रकरणं ताहशीर्थ: जैसा प्रकरण तैसा अर्थ, सो इहां गुणस्थान का प्रकरण है, तातै गुणस्थान अर्थ का ग्रहण किया है।
बहुरि ये कर्म सहित जीव जैसे लोक विर्षे है, तसे नष्ट भए सर्वकर्म जिनके, ऐसे सिद्ध परमेष्ठी भी हैं। ऐसा मानना । क्रमेण कहिए क्रम करि सिद्ध हैं, सो यहां क्रम शब्द करि पहिले घातिकर्मनि कौं क्षपाइ सयोगकेवली, अयोगकेवली गुणस्थाननि वि यथायोग्य काल तिष्ठि, प्रयोगकेवली का अंत समय विषं अवशेष अघातिकर्म समस्त खिपाइ सिद्ध हो है - ऐसा अनुक्रम जनाइए है । सो इस अनुक्रम की जनावनहारा क्रम शब्द करि युगपत् सर्वकर्म का नाशपना, बहुरि सर्वदा कर्म के अभाव ते सदा ही मुक्तपना परमात्मा के निराकरण कीया है।
आगै गुणस्थाननि विर्षे औदयिक आदि भावनि का संभव दिखावै हैं - मिच्छे खलु ओदइनो, बिदिये पुरण पारणामिओ भावो। मिस्से खओवसमिओ, अविरदसम्महि तिष्णेव ॥११॥ मिथ्यात्वे खलु औदयिको द्वितीये पुमः पारिरणामिको भावः ।
मित्रे क्षायोपशमिकः अविरतसम्यक्त्वे अय एवं ॥११॥
टीका - मिथ्यादष्टि गुणस्थान विर्षे दर्शनमोह का उदय करि निपल्या ऐसा प्रौदयिक भाव, प्रतत्त्वश्रद्धान है लक्षण जाका, सो पाइए है। खलु कहिए
१ षट्सण्डागम -क्यला पुस्तक-५ पृष्ठ १७४ १७७ भावानुगम मूत्र २, से ५