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रोम्मटसार जीवका गाथा ६
ए इंद्रिय-कायमार्गणा विर्षे गभित जानने । बहुरि उश्वास, बचनबल, मनबल, प्रारणनि के अपना कारणभूत उश्वास, भाषा, मनःपर्याप्ति जहां-जहां अंतर्भूत भया, तिसविर्षे अंतर्भूतपना न्याय ही है । तातै एऊ तहां ही इंद्रिय-कायमार्गणा विर्षे गभित भए । बहुरि योग-मार्गणा विर्षे कायबल प्राण गर्भित है, जाते जीव के प्रदेशनि का चंचल होने रूप लक्षण धरै काययोगरूप जो कार्य, तीहिविर्षे तिस काय का बलरूप, लक्षण धरै कायबल प्राणस्वरूप जो कारण, ताके अपने स्वरूप का सामान्य-विशेष करि कीया एकत्व-विशेष का सद्भाव है, तालें कार्य-कारण करि कीया एकत्व हो है । बहुरि ज्ञानमार्गरणा विर्षे इंद्रिय-प्रारण गभित है, जाते इंद्रियरूप मति-श्रुतावरण के क्षयोपशम से प्रकट जे लब्धिरूप इंद्रिय, तिनकै ज्ञान सहित तादात्म्य करि कीया एकत्व का सद्भाव है । बहुरि गतिमार्गणा विर्षे आयु प्राण गभित है । जाते गति और आयु के परस्पर अजहद्वृत्ति है । गति प्रायु विना नाही, आयु गति बिना नाही, सो इस लक्षण करि एकत्व संभव है।
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मायालोहे रदिपुवाहारं, कोहमाणगहि भयं। ' वेदे मेहुणसण्णा, लोहह्मि परिग्गहे सण्णा ॥६॥ मायालोभयोः रतिपूर्वकमाहार, कोषमामकयोभयं ।
वेदे मैथुनसंज्ञा, लोभे परिग्रहे संज्ञा ॥६॥
टीका - माया कषाय पर लोभ कषाय विर्षे आहार संज्ञा गभित है, जातें आहार की वांछा रतिनामकर्म के उदय कौं पहिले भए हो है । बहुरि रतिकर्म है, सो माया-लोभ कवाय राग कौं कारण है, तहाँ अंतर्भूत है । बहुरि क्रोधं कषाय अर मान कषाय विर्षे भयसंशा गभित है । जातें भय के कारण नि विर्षे द्वेष का कारणपना है, तात द्वेषरूप जे क्रोध-मान काय, तिनकै कार्य-कारण अपेक्षा एकत्व संभव है । बहुरि वेदमार्गणा विर्षे मैथुन संशा अंतर्भूत है, जाते काम का तीनपना का वशीभूतपना करि कीया स्त्री-पुरुष युगलरूप जो मिथुन का कार्य अभिलाषसहित संभोगरूप, सो वेद का उदय करि निपज्या पुरुषादिक का अभिलाषरूप कार्य है । असे कार्यकारणभाव करि एकत्व का सद्भाव है । बहुरि लोभ कषाय विर्षे परिग्रह संज्ञा अंतर्भूत है, जातै लोभ कषाय होते ही ममत्वभावरूप जो परिग्रह का अभिलाष, तरका संभव हैं, तातें यहां कार्य-कारण अपेक्षा एकत्व है। असा हे भव्य ! तू जारिण। '
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