________________
॥ अव गुरु परमार्थकी शिक्षा कथन करे है । सवैया ३१ सा ॥
भैया जगवासी तूं उदासी व्हैके जगतसों, एक छ महीना उपदेश मेरो मान रे ॥ और संकलप विकलपके विकार तजि, बैठिके एकंत मन एक ठोर आन रे तेरो घट सर तानें तूंही व्है कमल वाकों, तूंही मधुकर व्है सुवास पहिचान रे ॥ प्रापति न है है कछु ऐसा तूं विचारत है, सही व्है है प्रापति सरूप योंहि जान रे ॥ ३ ॥
अर्थ — गुरु परमार्थका उपदेश कथन करे है - है भाई जगतमें रहनेवाला ? तूं जगतसे स्पर्श रस गंध वर्ण अर शब्द इनसे उदासीन होयके, एक छ महिना मेरा उपदेश मानहुं । सो कहूंहूं - तूं विषय कषाय अर आर्तरौद्र ध्यान जनित विकार तजि, अर एकांत में बैठि अपना मन एकाग्र ( एक ठेकार्णे ) राख । अर तेरे चितरूप सरोवरमें तूंही निर्मल सहस्र दलका कमल हो, उस कमलमें तूंही भ्रमर होके | आपना स्वस्वभावरूप सुगंधकूं पहिचान कर तिसमें मग्न हो तल्लिन हो अर सहस्रदल कमलमें विलास कर । तूं ऐसा विचारत है जो मोकूं कछु प्राप्ति न होयगी सो ऐसा मति जानहूं, निश्चयतै स्वस्व| रूपकी प्राप्ति होयगी ये पिंडस्थ ध्यान है सो करनेसे प्राणायामते कमलकोश खुलेगा आपके स्वस्वरूपकी प्राप्ति होगी अर ज्ञानगुणं प्रगटेगा ॥ ३ ॥
॥ अव जीव अर अजीवका जुदा जुदा लक्षण कहे है ॥ वस्तु खरूप कथन ॥ दोहा ॥ - चेतनवंत अनंत गुण, सहित सु आतमराम । याते अनमिल और सब, पुद्गल के परिणाम ||४|| अर्थ — चेतनवंत अर अनंतगुण सहित जे पदार्थ है ते तो आत्माराम है, आपके आत्मस्वरूपमें रमे ताकारण आत्माराम कहिये है । अर आत्माके गुणको नहि मिले ते सर्व, पुद्गल के परिणाम है ॥ ४ ॥
1