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व्याख्यान-तीसरा
.. आचारांग सून में सूत्रकार महर्षि फरमाते हैं कि संसारी. जीवोंको ज्यों ज्यों धन मिलता जाता है त्यों त्यों .. लोभ बढ़ता जाता है। संतोषी कम और लोभी अधिक। संसारी कामोंमें धन खर्च करनेवाले ज्यादा होते हैं और धर्मके कामों में धन खर्च करनेवाले कम होते हैं।
पर्व तिथियोंमें अगर खाना पड़े तो राजी होकर नहीं खाना चाहिये किन्तु उदास होकर ही खाना चाहिये। . . .. पंचपर्वी अर्थात् दो चौदस, दो आठे और सुदी पांचम. (सुदी पंचमी) इन पांच तिथियों में यथाशक्ति तप करना चाहिये। उस दिन खांडना कूटना, कपड़ा धोना आदि पाप-प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। इस पंचपर्वी में संयम पालना चाहिये। ..
संसार का सुख भी धर्मकी मेहरबानी से मिलता है। - तुम्हें जितना प्रेम धनसे है, अगर उससे अधिक प्रेम धर्म से हो तो कितना अच्छा हो। फिर भी उतना तो है ही? इसमें भी कुछ गड़बड़ हो तो अवले समझ लेना कि धर्म के ऊपर जितना प्रेम करना है उतना प्रेम और किसी पर नहीं करना है। अरे! धर्मको गवा करके तो शरीर के खोखे पर भी प्रेम नहीं करना है। ....कर्म किसी की शर्म रखता नहीं है। कर्म किसी को छोड़ता नहीं है। उदय के समय वह अपना काम करके ही. शान्त होता है और खिरता है। . .... हृदय का राग तो देव, गुरु और धर्म के ऊपर ही रखना...घर, कुटुम्व और परिवार ऊपर तो वाहर का ही राग रखना।.... : ... ... ... .. .