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प्रवचनसार कर्णिका
-रहते हैं । परमाधामी का और दूसरे नारकों का भय लगा ही रहता है । और भयले हमेशा शोकातुर रहते है ।' जैसे एक कुत्ता दूसरे कुत्ताको देखकर टूट पड़ता है । उसी तरह एक नारकी दूसरे नारकी को देखकर धमधमा के टूट पड़ता है । और युद्ध करता है । वैक्रिय रूप करके क्षेत्र भावसे प्राप्त हुये शस्त्रों को लेकर वे एक दूसरे के टुकड़े कर डालते हैं । मानो कतलखाना हो । क्रोध के आवेश से परस्पर पीडा करते होने से खूब. दुख अनुभवते हैं । और खूब कर्म वांधते हैं ।
सम्यग् द्रष्टि नारक दूसरों के द्वारा उत्पन्न की गई पीडा को तात्विक विचारणा से सहन करते हैं । और मिथ्यादृष्टि नारकों की अपेक्षा कम पीडावाले और कर्मक्षय करनेवाले होते हैं । फिर भी मानसिक दुख की अपेक्षा ये समकिनी नारक बहुत दुखी होते हैं । क्योंकि पूर्वकृत कर्मों का संताप जितना उनको होता है उतना दूसरों को नहीं होता है ।
इस प्रकार क्षेत्र वेदना और परस्पर कृत वेदना भोगने के उपरांत नीचे मुजब परमाधामी कृत वेदना भी. भोगते हैं
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नारक के जीवों को परमाधामी देव धधकती लोहे की गरम पुतली के साथ भेट कराते हैं । खूब तपाये हुये तीसा का रस पिलाते हैं । शस्त्रों से धाव करके - उसके ऊपर क्षार डालते हैं। गरम गरम तेलसे नहाते हैं । भड्डी में भूंजते हैं । भालाकी नोक पर पिरोते हैं । - कोल्हू में डालकर पीलते हैं । करवत से चीर डालते हैं । अग्नि जैसी रेती पर चलाते हैं । उल्लू, वाघ, सिंह वगैरह