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व्याख्यान-छब्बीसवाँ
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. किसी समय ये मदनरेखा मणिरथ राजा के देखने - में आ गई । अदनरेखा के सौन्दर्य को देखने के साथ ही
मणिरथ एकदम काम वश बन गया । उसे एसा हो गया कि किसी भी भोग से इस सौन्दर्यवती को तो भोगना ही चाहिये।
लेकिन मदनरेखा का मन पिगले विनातो ये बन ही नहीं सकता था।
इसलिये मदनरेखा के मन को पिगलाले के लिये चौर उले अनने ऊपर रागवती बनाने के लिये राजा मणिरथ वारवार विविध प्रकार की भेंट मदनरेखा को भेजने लगा।
मदनरेखा के हृदय में पाप का भय नहीं था। मणिरथ के हृदय में पाप वासना थी। लेकिन मदनरेखा को तो एसी कोई कल्पना भी नहीं थी। इसलिये राजा मणिरथ की तरफ से मदनरेखा को जो भेट आती थी उले सहर्ष स्वीकार लेती थी। और इस तरह आती हुई भेंट से वडील की वंडीलता (वड़ो का वड्प्पन) की योग्यता वह समझती थी । . द्रिक भाव ले भेट को स्वीकार करती मदनरेखा के प्रति पाप बासना से पीड़ित राजा तो एला ही लसझता था कि मदनरेखा भी मुझे चाहती है।
काम पता है कि वह देखने को भी अंधा बनता है और बुद्धिमान को भी बेवकूफ बनाता है।
- अब एक दिन एकान्त प्राप्त करके खुद राजा मणिरथ ने मदनरेखा से प्रार्थना नी । . लाज मर्यादा को छोड़के उसने नफटाई (वेहयाई)