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- व्याख्यान-तीसवाँ .
३८९. ... की। केवली भगवन्तने दोनों को दीक्षा दी। दोनों जने
अत्यन्त हर्पित हुये। इसका नाम जैन शासन की आराधना. की तमन्ना।
गाँव में दोनों वर्ग हों। प्रशंसक सी हो और निन्दक भी हों। दोनों को समान गिलके चले उसका नाम सुनि।
जहां विषय का चिराग हो उसका नाम धर्म । जव तक विषयों का विराग नहीं आवे तव तक मोक्ष नहीं मिले। धर्म समझे हुई आत्मा संसार के कुरिवाजों के त्यागी होते हैं। कुरिवाजों को रखनेवाला धर्मी नही है।
: बातों में धर्म नहीं है। वर्तन में धर्म है। दुनिया में रहने पर भी अभ्यंतर पने से दुनिया ले अलग रहे उलका नाम धर्मात्मा।
दुनिया की नीति भिन्न है। और धर्म की नीतिः भिन्न है। स्वार्थ के लिये नहीं किन्तु परमार्थ के लिये अपली जात को निचोदे उसका नाम धर्म।
परमात्मा के पास जाके चैतन्यवंदन करते हो। उसमें .. अंतमें प्रार्थना सूत्र "जयवीराय" बोलते हो। लेकिन उसमें: क्या आता है ? ये तुमको मालूम है ? उस में कहा है कि हे भगवन् । तुम्हारे शास्त्र में नियाणा को बांधने का निषेध किया है किन्तु फिरभी मुझे भव भव में तुम्हारे चरणों की सेवा हो।"
धर्म से अमुक फल मिले एसी इच्छा करना उसे "निया|" कहते हैं। इस तरहसे नियाj करनेकी शास्त्र में सनाई है।
सुहपन्तीके वोलमें आता है कि "माया शल्य, नियाण शल्य और मिथ्यात्व शल्य परिहरूं ।" फिर भी भवभवमें वीतरागदेव की चरणसेवा. इञ्छी है। .