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व्याख्यान - इकतीसवाँ
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सुत्ते ।
नानुं सरोवर नानुं भाजन नाव करी. अई रडियाली आ रम्मत निरखी मुनिवर मन आनन्दे ॥
स्थविर आये। उन की दृष्टि इन वाल सुनि की क्रीडा पर गई । स्थविरोंने मीठा उपालम्भ दिया । और कश कि है भद्र! अपन कहलाते हैं साधु । सचित पानी को छूने से संयम की विराधना होती है । पली रमत (खेल) 'अपन से नहीं रसी खेली जाती ।
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बालमुनि को स्थविरों की शिखामण (सीख) हृदय में बस गई। क्योंकि उनका आत्मा योग्य था । को भूलका हृदय में पछतावा हुआ । स्वस्थानमें आके स्थंडिल जाने की हरियाही करते करते पश्चात्ताप की ज्वालामें उनके चार घाति कर्म भस्मीभूत हो गये । जडमूल से नाश -कर दिये । अईसुता मुनि केवलज्ञानी हो गये ।
उग्रतप और निरतिचार चारित्र का पालन करने से समूह शीघ्र नष्ट होता है ।
कर्म
अच्छा बनना हो तो दोष टिका त्याग करके गुण दृष्टिले बनो । छस्थावंत जीवोंमें कुछ न कुछ त्रुटि तो होती ही है । अपनको उससे गुणही देखना चाहिए दोपको देखना यह अपनी योग्यता नहीं ।
कहा है कि- "भैंस की शींग भैंसको ही भारी होते हैं ।" जो जिसके दुर्गुण होंगे वे उसको नडेंगे (हैरान करेंगे ।
अपको किसीका दुर्गुण पोषक नहीं होना चाहिए किन्तु दोष निन्दक भी नहीं होना चाहिए ।