Book Title: Pravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Author(s): Bhuvansuri
Publisher: Vijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad

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Page 495
________________ योधक- सुवाक्य. . . - (५९) जगत का सुख अच्छा नहीं लगे तो समझ लेना कि सम्यग्दर्शन आया है। (६०) जिस दिन दूसरों को सुखी बनानेकी चिन्ता.अपने हृदय __ में जगेगी तब अपने सुख का प्रश्न भी उकल जायगा । (६१) जव तक अपने में दोपों की हाजिरी है तब तक - दूसरों के दोष देखना, वोलना और सुनना बंध कर देना जरूरी है। (६२) अपने कार्य में दूसरे किसी की भी अपेक्षा नहीं: रखनी चाहिये। (६३) वृक्ष अपने फल दूसरो को देता है। खुद तडका में तप करके मुसाफिरोंको छाया देता है। नदियां अपना जल दूसरों को पीने और वापरने को देती हैं । तो फिर अपन को भी अपनी शक्ति होने पर भी दूसरों को सुख क्यों नहीं देना चाहि ? अर्थात् देना चाहिये। (६४) गाय को दोर के ले जाना हो तो घासचारा डालके भी ले जाया जा सकता है। और लकड़ी सार के भी ... ले जाया जा सकता है। उसी तरह दूसरों को . . शिखामण मीठे शब्दों से भी दी जा सकती है। और कठोर शब्दों से भी दी जा सकती है। लेकिन इनः दोनों में से प्रथम मार्ग पसन्द करने योग्य है। (६५) सतियोंके मन पतिको इष्ट हो वह इष्ट और अनिष्ट हो वह अनिष्ट । अनिष्ट उसी प्रकार वीतरागके ... भक्तको वीतरागको जो इष्ट हो वह इण्ट और अनिष्ट .... ही.. वह अनिष्ट। वह वीतरागका सच्चा. भक्त ... कहलाता है। . . . . . . . . . .:.

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