Book Title: Pravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Author(s): Bhuvansuri
Publisher: Vijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad

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Page 498
________________ ४४८. प्रवचनसार कणिका ( ११४) भले कितना ही सुखी हो किन्तु असतोपी सुखका: अनुभव नहीं कर सकता । " सन्तोष एव पुरुषस्य परं निधानम् । सन्तोष यही पुरुषका परम निधान है । (११५) बहुत बोलने से ज्ञानतन्तुओंकी भी हानि होती है। और झगड़ा, लड़ाई भी बहुत बोलने से होती है । " सौनेन कलहो नास्ति" मौन रहनेवाले को कलह (कजीयो) भी नहीं होता है । ( ११६) दूसरा आदमी खमे अथवा न खमे किन्तु मुझे खमाना चाहिये । " जो खामेई तस्स आराहणा जो खसे वह आराधक है । ( ११७) विनीत मनुष्य जगतमें गुणोंमें मुख्य है । "" पूज्य होता है | विनय सभी: “ विनयः परमो गुणः " विनय ये परम गुण है । ( ११८) एक मनुष्य सामायिक लेकरके बिना चिन्ता से उचे । और दूसरा मनुष्य दुकान पर बैठा बैठा कब सामायिक करूँ ? एसा भाव करे इन दोनोंमें से अधिक निर्जरा दुकान पर बैठा हुआ करे || ( १९९) भावसंयम को लिये बिना कोई भी आत्मा मुक्ति में नहीं गया | वर्तमानमें जाता नहीं है । और भविष्य भी नहीं जायगा । (२०) सभी मन्त्र तन्त्रोंमें नवकार ये परमोच्च मन्त्र है ।. ( १२१) अरिहंत का शरण स्वीकारो । सिद्धका शरण स्वीकारो । साधु भगवंतो का शरण स्वीकारो ॥ केवली प्रणीतधर्म का शरण स्वीकारो । और शुभ भावना में लयलीन बनके कल्याण साधो यही शुभाभिलाषा. * समाप्त *

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