Book Title: Pravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Author(s): Bhuvansuri
Publisher: Vijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad

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Page 496
________________ - - - - ४४६ प्रवचनसार कणिका (९१) अर्थ और काम से जो सुख मिलता है वह असली सुख नहीं है किन्तु नकली सुख हैं। (९२) जगतने अज्ञान जीव अर्थ और कामकी उपासना में: लय लीन है। और एसा मानते हैं कि इसमें सुख है किन्तु अनन्त ज्ञानी कहते है कि इसमें वास्तविक सुख नहीं है। (९३) क्रोध करने से काका वन्धन होता है इसलिये ज्ञानीयोंने क्रोधको चंडाल की उपमा दी है।। • (९४) क्रोधका स्वरूप भयंकर है जब मनुष्य क्रीधमें आ जाता है तव भान भूला बन जाता है। . __ (९५) क्रोध करने से धर्म की हानि होती है। . . "क्रोधात् प्रीति विनाशः "। - (९६) मान ये मनुष्य को अधोगति में ले जाता है। (९७) खोटा मान कभी नहीं करना जो धर्म में आना हो तो। ..(९८) मायावी मनुष्य की तो दुनियामें कीमत नहीं है। (९९) जो माया से खुश होता है उसे कर्मसत्ता छोड़ती - नहीं है। . (१००) ज्यों ज्यों मनुष्यको लाभ होता जाता है त्यों त्यों लोभ बढ़ता जाता है। "जहा लाहो तहा लोहो” उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है। ... .(१०१) "चलाचले च ससारे धर्मएकोहिनिश्चलः" इस चला चल संसारमें एकधर्म ही निश्चल है। . . . . . (१०२) सम्यग्ज्ञान की चिन्ता करना और अपने बालकोंको सस्यग्ज्ञानमें जोड़ने के लिये जोरदार प्रयत्न करना ":"चाहिये। .(१०३) "माता शत्रुः पितावैरी येन वालो न पाठित ..... ...: माता शत्रु और पिता वैरी हैं जो अपनी सन्तान वालकों को नहीं पढ़ाने ।...... ..

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