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प्रवचनसार कणिका
( ११४) भले कितना ही सुखी हो किन्तु असतोपी सुखका: अनुभव नहीं कर सकता ।
" सन्तोष एव पुरुषस्य परं निधानम् । सन्तोष यही पुरुषका परम निधान है ।
(११५) बहुत बोलने से ज्ञानतन्तुओंकी भी हानि होती है। और झगड़ा, लड़ाई भी बहुत बोलने से होती है । " सौनेन कलहो नास्ति" मौन रहनेवाले को कलह (कजीयो) भी नहीं होता है ।
( ११६) दूसरा आदमी खमे अथवा न खमे किन्तु मुझे खमाना चाहिये ।
" जो खामेई तस्स आराहणा जो खसे वह आराधक है ।
( ११७) विनीत मनुष्य जगतमें गुणोंमें मुख्य है ।
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पूज्य होता है | विनय सभी:
“ विनयः परमो गुणः " विनय ये परम गुण है । ( ११८) एक मनुष्य सामायिक लेकरके बिना चिन्ता से उचे । और दूसरा मनुष्य दुकान पर बैठा बैठा कब सामायिक करूँ ? एसा भाव करे इन दोनोंमें से अधिक निर्जरा दुकान पर बैठा हुआ करे ||
( १९९) भावसंयम को लिये बिना कोई भी आत्मा मुक्ति में नहीं गया | वर्तमानमें जाता नहीं है । और भविष्य भी नहीं जायगा ।
(२०) सभी मन्त्र तन्त्रोंमें नवकार ये परमोच्च मन्त्र है ।. ( १२१) अरिहंत का शरण स्वीकारो । सिद्धका शरण स्वीकारो । साधु भगवंतो का शरण स्वीकारो ॥ केवली प्रणीतधर्म का शरण स्वीकारो । और शुभ भावना में लयलीन बनके कल्याण साधो यही शुभाभिलाषा. * समाप्त *